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अनुकम्पाधिकारः।
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"अथ अठे हरिकेशी मुनिनी अनुकम्पा करी यो विप्रांने ताड्या ऊंधापाड्या ए अनुकम्पा सावध छै के निरवद्य छै आज्ञामें छै के आज्ञा बाहिरे छै एतो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे छै” (भ्र० पृ० १६९)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
उत्तराध्यनन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह गाथा यह है:
"जक्खो तहिं तिदुग रुक्खवासो, अणु कम्पओ तस्स महा मुनिस्स ।
पच्छाइयत्ता नियग सरीरं . इमाइ वयणाइ मुदाहरित्था ।"
(उ० अ० १२ गाथा ८) अर्थ:
सिंदुक वृक्षपर निवास करनेवाला उस महा मुनिका अनुकम्पक यानी उनमें भक्तिभाव रखनेवाला यक्ष अपने शरीरको छिपाकर ब्राह्मणोंसे इस प्रकार कहा। यह उक्त गाथाका अर्थ है।
इसीका नाम लेकर जीतमलजी और भीषणजी अनुकम्पाको सावध कहते । उनका कहना है कि यक्षने जो ब्राह्मग कुमारोंका ताड़न किया था यह उसकी हरिकेशी मुनिपर मनुकम्पा हुई" परन्तु यह बात मिथ्या है यक्षने मुनिपर अनुकम्पा करके ब्राह्मणों को सदुपदेश दिया था जब वे ब्राह्मग उसे मारने लगे तो उसने भी मारनेके बदलेमें मारा था परन्तु अनुकम्पाके कारण नहीं मारा । मुनिपर अनुकम्पा करके सदुपदेश देनेका शास्त्रमें कथन है मारनेका नहीं वह गाथा यह है :
"समणो अहं संजउ वंभयारी, विरओ धण पयण परि ग्गहाओ। पर पवित्तस्सउ भिक्ख काले,
अन्नस अट्ठा इह आगओ मि" ॥ वियरिज्जइ, खज्जइ, भुज्जइय, अन्न पभुयं भवयाणमेयं जाणाहिमे जायण जीवणुत्ति, सेसावसेसं लहओ तवस्सी"।
(उत्तराध्ययन अ० १२ गाथा ९१०)
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