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सद्धर्ममण्डनम् ।
इस ढालमें भीषणजीने यह आज्ञा दी है कि "अग्नि सादिका भय होने पर श्रावक यदि जयणाके साथ निकल जाय तो उसका व्रत नष्ट नहीं होता।"
यदि सामायक और पौषधके समय अनुकम्पा करना बुरा है तो अग्नि सादिका भय होने पर श्रावक जयणाके साथ कैसे निकल सकता है ? क्योंकि यह भी तो अपने ऊपर अनुकम्पा ही करना है। यदि कहो कि अपने पर अनुकम्पा करनेसे व्रत भङ्ग नहीं होता किन्तु दूसरे पर अनुकम्पा करनेसे होता है इसलिये सामायक और पौषधमें अपनी अनुकम्पाके लिये जयणाके साथ निकल जानेमें कोई दोष नहीं है तो फिर सुरादेवका व्रत भङ्ग क्यों हुआ था क्योंकि उसने किसी दूसरे पर अनुकम्पा नहीं करके अपने पर अनुकम्पा की थी। देखिये वह पाठ यह है:____ "तएणं से सुरादेवे समणोवासए धन्नं भारियं एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिए ! केवि पुरिसे तहेव कहइ जहा चुलणीपिया । धन्नाविभणइ-जाव कणीयसं नो खलु देवाणुप्पिया ! तुभंकेवि पुरिसे सरीर गंसि जमग समगं सोलस रोगायंके परिपक्खिवइ । तएणं केवि पुरिसे तुभं उवसर्ग करेइ सेसं जहा चुलणोपियस्स तहा भणई"
(उपासक दशांग अ०४) अर्थ:
इसके अनन्तर उस मुरादेव श्रमणोपासकने धन्या नामक अपनी भार्यासे अपना सारा वृत्तान्त चूर्णी प्रिय श्रावकके समान ही कह सुनाया। यह सुन कर धन्याने कहा कि हे देवानुप्रिय ! किसीने भी तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्रसे लेकर यावत् कनिष्ठ पुत्रको नहीं मारा है और कोई भी तुम्हारे शरीरमें एक ही साथ सोलह रोग नहीं डाल रहा था किन्तु यह किसीने तुम्हारे पर उपसग किया है। शेष बातें चूर्णीप्रियको माताके समान धन्याने अपने पतिसे कहीं। अर्थात् "तुम्हारा व्रत नियम और पौषध इस समय भङ्ग हो गये" यह, धन्याने अपने पतिसे कहा।
यहां मूलपाठमें चूगी प्रिय श्रावकके समान ही सुरादेव श्रावकका व्रत नियम और पौषध भङ्ग होना कहा गया है अत: भीषण मतानुयायियोंसे पूछना चाहिये कि "सुरादेवका व्रत नियम और पौषध क्यों भङ्ग हुए ?। सुरादेवने अपनी अनुकम्पा की थी दूसरे की नहीं की थी, और अपनी अनुकम्पासे व्रत नियम और पौषध का भङ्ग होना भीषणजीने भी नहीं माना है फिर सुरादेवके व्रत नियम और पौषध भङ्ग होनेका
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