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सद्धर्ममण्डनम् । क्योंकि हिंसक प्राणीको हिंसा नहीं करनेके उिये उपदेश देना तो भूमविध्वंसन कारके मतमें भी धर्म ही है।
यदि कहो कि हिंसकको हिंसाके पापसे बंचाने के लिये धर्मोपदेश देना धर्म तो है परन्तु वह पुरुष बिलकुल अनार्य और अयोग्य था उसे उपदेश देना निष्फल जानकर चुलणी प्रियने उपदेश नहीं दिया था तो इसी तरह सरल बुद्धिसे यह भी समझो कि जीवरक्षाके लिये धर्मोपदेश देना धर्म तो है परन्तु वह पुरुष अनार्या
और अयोग्य था उसे जीवरक्षाके लिए उपदेश देना निष्फल जानकर चुलणी प्रियने उपदेश नहीं दिया। अतः चुलगी प्रिय श्रावकका दृष्टान्त देकर जीवरक्षा करनेमें पाप बताना इनका अज्ञान समझना चाहिए।
इसीतरह माताकी रक्षाके लिये प्रवृत्त होनेसे चुलणी प्रियके व्रतनियमका भंगबताना भी अज्ञान है क्योंकि हिंसक पुरुषपर क्रोध करके उसे मारणार्थ दौड़नेसे चुलगी प्रियके व्रत नियम नष्ट हुए थे माताकी रक्षाका भाव आनेसे नहीं देखिये वहांका मूलपाठ और टीका ये हैं:
"तएणं साभदा सात्थवाही चुलणी पियं समणोवासयं एवं वयासो नो खलु केइ पुरिसे तव जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ निणेइ २ त्ता तव अग्गओ घाएइ । एसणं केइ पुरिसे तव उवसग्ग करेइ एसणं तुमे विदरिसणे दिढे तंणं तुमं एयाणिं भग्गवए भग्ग णियमे भग्ग पोसहे विहरसि" (टीका)
__ "भगवए" त्ति भग्नवतः स्थूलपाणातिपातविरतर्भावतोभग्नत्वात् तद्विनानाशार्थ कोपेनोद्धावनात् । सापराधस्यापिव्रताविषयीकृतत्वात् । भग्ननियमः कोपोदये नोत्तरगुणस्य क्रोधाभिग्रहरूपस्य भग्नत्वात्। भग्नपोषधः अव्यापार पोषरूपस्य भंगत्वात्"
(मूलार्थ)
इसके अनन्तर उस भद्रा सार्थवाहिनीने कहा कि हे चुलणी प्रिय ! तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र से लेकर यावत् कनिष्ठ पुत्रको घरसे बाहर लाकर तुम्हारे समक्ष किसीने भी नहीं मारा है। यह तुम्हारे पर किसीने उपसर्ग किया है तुमने जो देखा है वह मिथ्या दृश्य था। इस समय तुम्हारे व्रत नियम और पोषध नष्ट हो गये हैं। यह ऊपर लिखे मूलपाठका अर्थ है।
___इस मूल पाठमें भद्रासार्थवाहिनीने चुलणीप्रियके व्रत नियम और पोषध भंग होनेकी जो बात कही है इसका कारण बतलाते हुए टीकाकारने यह कहा है
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