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सधम मण्डनम् ।
असंयतिने वचवणा । अने जो एतला बोल न करणा तो असंयतिना शरीरनी रक्षा पिण नकरणी ( ० प० १५२ ) इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक)
निशीथ सूत्रका वह पाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है । वह पाठ यह है :
"जे भिक्ख अण्णउत्थिदंवा गारत्थियवा भुइकम्मं करेइ करतंवा साइज्जइ । '
( निशीथ उ० १३ बोल १४ )
अर्थ
जो साधु गृहस्थ या अन्य यूधिकको भूति कर्म करता है अथवा भूति कम करनेवालेको अच्छा जानता है उसे प्रायश्चित्त होता है ।
इस पाठ साधुको भूति कर्म करनेका निषेध किया है किसी मरते प्राणीको अपनी कल्प मर्यादानुसार रक्षा करनेका निषेध नहीं किया है किन्तु भ्रमविध्वंसनकारको चाहे जिस पाठमें जीवरक्षा करने का निषेध ही निषेध सूझ पड़ता है निशीथ सूत्रमें यह भी पाठ आया है कि:
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"जेभिक्खू विज्जा पिण्डं भुजइ भुजंतंवा साइज्जई" "जेभिक्खू मंत पिण्डं भुजइ भुजंतंवा साइज्जई” "जेभिक्खु जोग पिण्डं भुजइ भुजंतंवा साइज्जई” ( निशीथ सूत्र )
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अर्थः
जो साधु विद्या वृत्ति से आहार पानी लेता है जो मन्त्र और योग वृत्ति से आहार पानी लेता है या लेने वाले साधु को अच्छा समझता है उसे प्रायश्चित्त होता है । यह इस पाठका मूलार्थ है ।
इस पाठ में जैसे विद्या मंत्र और योग वृत्तिसे साधुको आहार पानी लेना वर्जित किया है अपनी कल्पमर्य्यादानुसार आहार लेना वर्जित नहीं किया है उसी तरह निशीथ के पूर्वोक्त पाठ में भूति कर्म करनेका निषेध किया है अपनी कल्प मर्य्यादानुसार जीव रक्षा करनेका निषेध नहीं किया है यदि जीव रक्षा करनेसे प्रायश्चित्त वतलाना होता तो वह भूति कर्म करने का नाम क्यों लेते ? क्योंकि केवल भूति कार्यसे ही रक्षा नहीं होती रक्षा करनेके अनेकों उपाय होते हैं इसलिए सामान्य रूपसे यही लिख देते कि
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