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सद्धर्ममण्डनम् ।
बचानेमें पाप कहते हैं उपदेश देकर जीव बंचानेमें पाप नहीं कहते परन्तु यह बात भी मिथ्या है। यह उपदेश देकर भी जीवरक्षा करनेमें पापही कहते हैं। इनका मन्तव्य, इनके लेख और भीषणजीकी ढाल लिखकर विस्तारके साथ बतलाया जा चूका है इसलिए इनका यह लिखना कि “पिण जवरीसू छोडावणो न कह्यो” जनताको धोखा देना है।
आगे चलकर जीतमलजीने लिखा है कि "रोहरणथी मिनकीने डरायने ऊंदुराने बंचावे त्यांने आत्मरक्षक किम कहिए” इनकी यह बात भी असंगत है जो दयालु मनुष्य ओघासे विल्लीको डराकर चूहेकी प्राणरक्षा करता है वह कौनसा अनुचित कार्य करता है जिससे वह आत्मरक्षक नहीं कहा जाय ? यदि कहो कि "किसी प्राणीको भय देना उचित नहीं है और वह बिल्लीको भय देकर चूहेकी रक्षा करता है इसलिये बिल्लीको भय देनेके कारण वह आत्मरक्षक नहीं है" तो जो साधु, मारनेकेलिये आती हुई गाय भैंसको तथा काटनेके लिये आते हुए कुत्ते को ओघासे डराकर अपनी रक्षा करता है वह आत्मरक्षक कैसे कहला सकता है ? क्योंकि वह भी कुत्ते, गाय भैंसको ओघासे डराता है ? इसलिये उसे भी आत्मरक्षक नहीं कहना चाहिए। यदि कहो कि जो साधु मारनेके लिये आती हुई गाय भैंसको तथा काटनेके लिये आते हुए कुत्ते को ओधासे डराकर अपनी रक्षा करता है वह कुछ भी अनुचित कार्य नहीं करता अत: वह आत्मरक्षक ही है तो उसी तरह यह भी समझो कि जो दयालु पुरुष ओघा से बिल्लीको डराकर चूहेकी रक्षा करता है वह भी अनुचित काय्य नहीं करता प्रत्युत बिल्लीको हिंसाके पापसे बचाता है और चूहेकी प्राणरक्षा करता है इसलिये वह अपनी
और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करता है किसीकी भी हानि नहीं करता इसलिये वह धार्मिक ही है पापी नहीं है अतः भूमविध्वंसनकारकी पूर्वोक्त बात भी मिथ्या है।
(बोल २३ वां समाप्त) (प्रेरक )
भूम विध्वंसनकार भूमविध्धंसन पृष्ठ १५१ पर निशीथ सूत्र उद्देशा ११ बोल १७० का मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ अठे पर जीवने विहाव्यां विहावताने अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त कहयो तो मिनकीने डरायने उदुराने पोषगो किहांथी अने असंयतिना शरीरनी रक्षा किम करणी” (भ्र० द० १५१) इसका क्या समाधान ?
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