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अनुकम्पाधिकारः।
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"तओ आयरक्खा पन्नत्ता तंजहा-धम्मियाए पडिचोयणाए भवइ तुसिणीए वासिया उचित्तावा आया एगंत मवक्कमेज्जा"
(ठणाङ्ग ठाणा ३ उद्देशा ४). टीका
___आत्मानं रागद्वेषा दे रकृत्या द्भव कूपा द्वारक्षन्तीति आत्मरक्षाः । “धम्मियाए पडिचोयणा” ए त्ति धार्मिकोपदेशेन नेदं भवादृशा मुचित मित्यादिना प्रेरयिता उपदेष्टा भवति अनुकूलेतरोपसर्ग कारिणः। ततोऽसावुपसर्गकरणान्निवर्तते ततोऽकृत्या सेवा न भवती त्यात्मा रक्षितो भवति । तुष्गीकोवा वाचयम उपेक्षकः स्यादिति प्रेरणाया अविषये उपेक्षगा सामर्थ्येच ततः स्थानादुत्थाय आत्मना एकान्तं विजनम् अन्यं भूमिभाग मवक्रामेद गच्छेत्” । अर्थ:
जो पुरुष रागद्वेषसे, अनुचित आचरणसे, तथा भवकूपसे अपनी आत्माकी रक्षा करता है वह आत्मरक्षक कहलाता है। उस आत्मरक्षक पुरुषके पास आकर यदि कोई अनुकूल उपसर्ग करे तो धर्पोदेश देकर समझाना चाहिये। कहना चाहिये कि-"आप जैसे पुरुषको यह आचरण करने योग्य नहीं है" इस उपदेशको सुनकर यदि वह उपसर्ग करनेवाला उपसर्ग करना बन्द कर दे तो साधुसे अकार्यको सेवा नहीं होतो किन्तु साधुकी आत्मा अकृत्य आचरणसे बंच जाती है। अथवा चुप रहकर साधु उस उपसर्गका सहन करलेवे तो इस प्रकार भी अनुचित आचरणसे उसकी आत्मा रक्षित होती है। यदि उपसर्ग करनेवाला धर्मोंपदेश देने योग्य न हो और साधुसे उपसग भी न सहा जा सके तो वहांसे हटकर किसी एकान्त स्थानमें साधुको चला जाना चाहिये। इसप्रकार अनुचित आचरणले साधुको अपनी आत्माकी रक्षा करनी चाहिये।
(यह उक्त मूलपाठका टीकानुसार अर्थ है) यहां अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग करनेवालेके प्रति रागद्वेष और अकृत्य आचरणसे. बंचनेके लिये आत्म रक्षक पुरुषको तीन उपाय बताये हैं' (१) धर्मोपदेश देना (२) उपसर्गको सह लेना (३) वहांसे हटकर एकान्तमें चला जाना। इसमें हिंसक द्वारा मारे जाते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा करने, या उसके लिये धर्मोपदेश देनेका निषेध नहीं किया है अतः इस पाठका नाम लेकर मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेमेंपाप बतलाना एकान्त मिथ्या है।
इस पाठकी समालोचनामें जीतमलजीने लिखा है कि "पिण जवरी सू छुडा वणो न कह्यो” इस लेखसे प्रतीत होता है कि जीतमलजी जवरजस्तीसे जीव
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