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अनुकम्पाधिकारः।
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"जे भिक्खू अन्नउत्थियाणंवा गारन्थियाणं गाणं मुढाणं विपरियासियाणं मग्गंवा पवेदेइ संधि पवेदेइ संघिउवा मग्गं पवेदेइ पवेदंतंवा साइज्जह"
(निशीथ सूत्र उ० १३ । बोल २७) अर्थ :
जो साधु, मार्ग भ्रष्ट या दिङ्मूढ़ तथा विपरीत मागसे जाते हुए गृहस्थ या अन्य यूधिक को मार्ग, या मार्गकी संधि बतलाता है अथवा संधिसे मार्ग या मार्गसे संधि बतलाता है तथा बतलाते हुए को जो अच्छा जानता है उसे चौमासी प्रायश्चित्त आता है। यह इस पाठ का । मूलार्थ है।
यहां यह प्रश्न होता है कि अन्य यूथिक और गृहस्थको मार्ग या उसकी संधि साधु द्वारा नहीं बतलानेका क्या कारण है ? तो इसका उत्तर देते हुए चीकार इस पाठ की चूर्णीमें बतलाते हैं कि
मुनिसे बताये हुए मार्गसे जाते हुए गृहस्थ या अन्य यूथिकको कदाचित् कोई चोर लूट ले, सिंहादि जङ्गली जानवर उन्हें दुःख दे, और उस उपसर्गसे कदाचित् उन का प्राण छूट जाय, अथवा वे ही कदाचित मृगादि पशुओं का हनन करें, इस लिये दयावान् मुनि अन्य यूथिक और गृहस्थको माग नहीं बतलाते । वह चूर्णी यह है:
__ "तेण पहेण गच्छंताणं सावयोवद्दवं सरीरोवहि तेणोवद्दवं पावेंति जंवा ते गच्छंता अन्नेसि उवहवं करेंति ।"
अर्थात साधुके बताये हुए मार्गसे जाते हुए अन्य यूथिक और गृहस्थको कदाचित जङ्गली जानवरोंसे उपद्रव हो अथवा चोरोंसे वे लुट लिये जाय या वे ही किसी जीव पर उपद्रव कर बैठे अत: साधु अन्य तीर्थी और गृहस्थ को मार्ग नहीं बतलाते । यह ऊपर लिखी हुई चूर्णीका अर्थ है।
___यहां चूर्णीकारने स्पष्ट लिखा है कि अन्य यूथिक और गृहस्थ पर होने वाले या उनके द्वारा दूसरे पर किये जाने वाले उपद्रवकी संभावनासे साधु मार्ग नहीं बतलाते परन्तु जीवरक्षाको या दुःखसे बचानेको बुरा जान कर नहीं अतः निशीथ सूत्रके इस पाठका नाम लेकर जीवरक्षामें पाप कहना अज्ञान मूलक है।
इसी पाठका नाम लेकर भीषणजीने अनुकम्पाको सावध बतलाया है । अनुकम्पा की ढालमें उन्होंने लिखा है:
___ "गृहस्थ भूलो ऊजड़ वनमें । अटवीने वले ऊअड जावे । अनुकम्पा माणी साधु मार्ग वतावे । तो चार महीना रो चारित्र जावे । आ अणुकम्पा सावज जाणो"..
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