________________
२४८
संद्धममण्डनम्।
थी फिर समुद्रपाली द्रव्य देकर उस चोरको कैसे छुड़ा सकता था।" वध दण्डके योग्य अपराधी प्राणीको द्रव्य लेकर न्यायकारी राजा छोड़ता भी नहीं है यह जगत्में प्रसिद्ध है कि बध दण्डके लिए आज्ञा पाया हुआ अपराधी, द्रव्य देकर भी नहीं छुड़ाया जा सकता ऐसी दशामें समुद्रपाली किसी प्रकार भी उस चोरको नहीं छुड़ा सकता था अत: समुद्रपालीका उदाहरण देकर हिंसकके हाथसे मारे जाते हुए निरपराधी प्राणीकी प्राण रक्षा करने में एकान्त पाप कहना नितान्त मिथ्या समझना चाहिए । (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४८ पर लिखते हैं "परिग्रह तो पाच मों पाप कहयो छे। जो परिग्रह देई छुड़ायां धर्महुवे तो बाकी चार आस्रव सेवायने जीव छुड़ायां पिण धर्म कहिणो पिण इण धर्म निपजे नहीं" इनके आचार्य ने इस विषयमें यह लिखा है :
__ "दोय वेश्या कसाई वाडे गई । करता देखी हो जीवांरा संहार। दोनों जणियां मतो करी। मरता राख्या हो जीव दोय हजार।
एक गहणो देई आपणो। तिण छोडायो हो जीव एक हजार । दूजी छुड़ाया इण विधे एक दोयसे हो चौथे आस्रव सेवाय ।
( अनुकम्पाकी ढाल ७) इनके कहनेका भाव यह है कि किसी हिंसकको द्रव्य देकर जीव छुड़ाना, या उससे व्यभिचार कराकर जीव छुड़ाना दोनों ही एक समान एकान्त पापके कार्य हैं अतः हिंसकको द्रव्य देकर उसके हाथसे मारे जाते हुए जीवको रक्षा करना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
जीव रक्षा आदि परोपकारके कार्यमें अपने द्रव्यको लगाना, अपने धनमें लोभ और तृष्णाके न्यून करनेका फल है। अपने धनमें जिसकी तृष्णा और लोभ न्यून होता है वही पुरुष परोपकारार्थ अपने द्रव्यका व्यय करता है परन्तु जिसकी तृष्णा
और लोभ तीन होते हैं वह नहीं कर सकता। जीव रक्षा आदि परोपकारके लिए अपने धनका व्यय करनेवाला पुरुष अपने लोभ और मोहको न्यून करता है तथा इसके साथ वह मरते प्राणीकी प्राण रक्षा भी करता है अतः यह पुरुष धार्मिक है एकान्त पापी नहीं है। परिप्रहसे अपनी ममता उतरना और जीव रक्षा करना ये दोनों ही बातें महान् धर्मके कारण हैं अतः इन दोनोंको एकान्त पाप बताना जोतमलजी और भीषणजीका अज्ञान है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com