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अनुकम्पाधिकारः ।
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४८ के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ४ की चौङ्गी लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
इसका क्या समाधान ?
"अथ अठे पिण कह्यो - जे साधु पोतानी अनुकम्पा करे पिण आगलानी अनुकम्पा न करे तो जे परजीव ऊपर पग न देवे ते पिण पोतानीज अनुकम्पा निश्चय नियमा छैते किम् एहने मारयां मोने इज पाप लागसी इम जाणी नहणे ते भणी पोतानी अनुकम्पा कही छै । अने आपने पाप लगायने आगलानी अनुकम्पा करे ते सावध छै"
( भ्र० वि० पृ० १४८ )
२४५
(प्ररूपक )
ter सूत्र के चौथे ठाणेकी वैभौङ्गीमें मरते जीवकी रक्षा करना स्थविर कल्पी साधुका परम कर्त्तव्य बतलाया है परन्तु अपनी पोल छिपानेके लिए भ्र० वि० कारने इसका साफ साफ भावार्थ नहीं लिखा है। ठाणाङ्ग सूत्रका वह पाठ यह है :"वस्तारि पुरिस जाया पन्नत्ता तं जहा
आयानु कम्पए नाम मेगे णो परानु कम्पए" ।
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इसकी टीका
आत्मानुकम्पकः आत्म हित प्रवृत्तः प्रत्येक वुद्धो जिन कल्पिको वा परानपेक्षो निर्घृणः । परानुकम्पकः निष्ठितार्थतया तीर्थंकरः अत्मानपेक्षोवा दयैकरसो मेताय्यैवत् । उभयानुकम्पकः स्थविरकल्पिकः । उभयाननुकम्पकः पापात्मा कालशौकरिकादिरिति । "
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अर्थात्- - चार प्रकारके पुरुष होते हैं (१) अपनी ही अनुकम्पा करते हैं परन्तु दूसरेकी नहीं करते, ऐसे तीन पुरुष होते हैं - प्रत्येक बुद्ध, जिन कल्पी और दूसरे की अपेक्षा नहीं करनेवाला निईय पुरुष । ये तीनों अपने ही हितमें तत्पर रहते हैं दूसरेका हित नहीं करते । (२) जो दूसरेकी अनुकम्पा करता है अपनी अनुकम्पा नहीं करता वह दूसरा भङ्गका स्वामी है, ऐसा पुरुष या तो तीर्थंकर होते हैं अथवा अपनी परवाह नहीं रखनेवाला मेतार्य्यकी तरह परम दयालु पुरुष होता है । ( ३ ) जो अपनी और दूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करता है वह तीसरा भङ्गका स्वामी है। ऐसा पुरुष स्थविर कल्पी साधु होता है । स्थविर करूपी साधु अपनी और दूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करता है । ( ४ ) जो अपनी भी अनुकम्पा नहीं करता और दूसरे की भी नहीं करता वह पुरुष
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