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सद्धर्ममण्डनम् । .
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंससन कार भ्र० वि० पृष्ठ १४४ पर सूयगडांग सूत्रकी गाथा लिखकर उसको समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ अठे पिण संयम जीवितव्य दोहिलो कह्यो पिण और जीवितव्य दोहिलो न कह्यो" भ्रम पृ० १४४)
इनका आशय यह है कि हिंसकके हाथसे मारे जाने जानेवाले असंयति जीवकी रक्षा करना असंयम जीवनकी इच्छा करना है इसलिये साधुको मरते प्राणीकी रक्षाके लिये उपदेश नहीं देना चाहिये। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
सूयगडांग सूत्रकी वह गाथा लिखकर इसका समाधान किया जाता है। वह गाथा निम्नलिखित है"संवुज्झह, किन वुज्झह संवोहो खलुपेच्च दुल्लहा,
नोहूवण मंति राइयो नो सुलभं पुनराविजीवियं" अर्थ :
(सू० श्रु०१ २ गाथा १) हे प्राणियों! तुम सम्यग् ज्ञान आदिकी प्राप्ति करो, तुम इसकी प्राप्ति क्यों नहीं करते यदि इस भवमें नहीं किया तो परलोकमें करना दुर्लभ होगा। जो रात बीत जाती है वह फिर लौट कर नहीं आती। संसारमें संयम प्रधान जीवन दुर्लभ है अथवा जिस जीवनकी आयु टूट गई है वह फिर नहीं जूट सकती। यह उक्त गाथाका अर्थ है।
__इसमें संयम प्रधान जीवनको दुर्लभ कहा है। जो जीवन हिंसासे निवृत्त होकर रक्षाके साथ साथ व्यतीत होता है वही संयम जीवन है इसलिये जो साधु मरते प्राणीकी रक्षा करता है उसका जीवन संयम जीवन है असंयम जीवन नहीं है। रक्षा करनेसे संयमकी निर्मलता होती है इसलिए संयमी पुरुष जीव रक्षा करते हैं इसमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। ऊपर लिखी हुई गाथामें ऐसा एक भी शब्द नहीं है जिससे जीवरक्षामें पाप होनेका समर्थन किया जा सके तथापि जीतमलजीने झूठाही इस गाथाका नाम लेकर रक्षा करनेमें पाप सिद्ध करनेकी चेष्टा की है अतः बुद्धिमानोंको इनके कथनका विश्वास न करना चाहिये ।
(बोल १६ वां) (प्रेरक)
भूम विध्वंसनकार भमविध्वंसन पृष्ठ १४५ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्र अध्यन ९ की १२।१३ और १४ की गाथाओंको लिखकर उनकी समालोचना
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