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सधर्ममण्डनम्।
कल्पीका कल्प दूसरा है अतः इन दोनोंके कार्य एक समान नहीं हो सकते। जो नमिराजके उदाहरणसे जीव रक्षा करनेमें पाप कहते हैं उनसे कहना चाहिए कि प्रत्येक बुद्ध साधु शिष्य नहीं करते धर्मोपदेश नहीं देते आहार व पानी लाकर किसी साधुका व्यावच नहीं करते इसलिए तुम्हारे हिसाबसे स्थविर कल्पी साधुको भी ये कार्य नहीं करने चाहिए ओर जो स्थविर कल्पी इन कार्योको करे उसे एकान्त पाप होना चाहिए । यदि कहो कि प्रत्येक बुद्धका कल्प दूसरा और स्थविर कल्पीका दूसरा है इसलिये इन कार्यों से प्रत्येक बुद्ध को ही दोष आता है स्थविर कल्पीको नहीं आता तो उसी तरह जीवरक्षाके विषयमें भी तुझको मानना चाहिए अर्थात् जीवरक्षा करनेमें स्थविर कल्पीको धर्म होता है और उसका यह कल्प है परन्तु प्रत्येक बुद्धका यह कल्प नहीं है। अतः प्रत्येक बुद्ध साधुका उदाहरण देकर स्थविरकल्पी साधुको जीवरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम है।
दूसरी बात यह है कि इन्द्रने नमिराज ऋषिसे यह नहीं पूछा था कि मरते जीवकी रक्षा करना धर्म है या पाप है ? यदि वह ऐसा पूछते और इसके उत्तरमें नमिराज ऋषि जीव रक्षा करना पाप बतलाते तो अवश्य जीवरक्षा करनेमें पाप माना जाता परन्तु वहां तो इन्द्रने माया करके नमिराज ऋषिको संसारिक पदार्थों में मासक्ति न होनेकी परीक्षा की है ओर नमिराज ऋषिने यह स्पष्ट कह दिया है कि "मिहिलाए डज्ज्ञमाणीए नमे डज्झइ फिचणं" अर्थात् मिथिलाके जलजाने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता। ऐसा उत्तर देकर नमिराज ऋषिने संसासारिक पदार्थो से अपना ममत्व हट जाना बतलाया है परन्तु मरते जीवको रक्षा करने पाप नहीं कहा है क्योंकि इन्द्रका यह प्रश्न हो नहीं था अत: नमिराज ऋषिके उदाहरणसे जीवरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानियोंका काय्य है।
(बोल १७ वां समाप्त)
(प्रेरक)
भूमविध्वंसनकार भूमविध्वंसन पृष्ठ १४६ पर दशवकालिक सूत्रकी गाथा लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:-"अथ अठे पिण कह्यो देवता मनुष्य ति-न्च माहोमाही कलह करे तो हार जीत वाच्छणी नही तो कायाथी हार जीत किम करावणी असंयति ना शरीरनी साता करते तो सावध हैं" (भू० पृष्ठ १४६) इसका क्या समाधान ?
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