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सद्धर्ममण्डनम् । निषेध नहीं किया है अत: इस गाथाका नाम लेकर मरते जीवकी प्राणरक्षा करनेमें पाप कहना मूर्खता है।
( बोल १४ वां समाप्त)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४३ पर उत्तराध्ययन सूत्र अ० ४ गाथा सातवींको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
"अथ अठे पिण कह्यो अन्न पानी आदि देई संयम जीवितव्य वधारणो पिण और मतलब नहीं ते किम उण जीवितव्यरी वाञ्छा नहीं एक संयमरी वांछा। आहार करतां पिण संयम छै आहार करणरी पिण अव्रत नहीं तीर्थकर री आज्ञा छै अने श्रावक नो तो
आहार अग्रतमें छै तीर्थकरनी आज्ञा बाहिरे छ। श्रावकने तो जेतलो जेतलो पच्चक्खाण छै ते धर्म छै ते मांटे असंयम जीवन मरणरी वांछा करे ते तो अघ्रतमें छै (भ्र० पृ० १४३)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह गाथा यह है:
"चरे पयाई परिसङ्कमाणो जंकि चि पासं इह मन्नमाणो । लाभंतरे जीविय बूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी,,
(उत्तरा० अ०४ गाथा ७) अर्थ:
किसी नस प्राणीको विराधमा न हो जाय इसलिये साधु अपने पैरको शङ्काके साथ पृथ्वो पर रख कर चले। गृहस्थ लोग यदि थोड़ी भी प्रशंसा करें वो उसे पासके समान कर्मबन्धका कारण समझे । ज्ञान दर्शन और चारित्रके विशेष लाभार्थ अन्न पानादिसे अपने जीवन की रक्षा करे । जब ज्ञान दर्शन और चारित्रकी प्राप्ति हो जाय और अपना शरीर भी रोगादिसे ग्रस्त या वृद्ध हो जाय, तथा साधुको ज्ञात हो कि इस शरीरसे अब ज्ञान दर्शन और चारित्रका उपार्जन नहीं हो सकता, तब वह शास्त्रीय विधानसे अपने शरीरका त्याग कर देवे । यह इस गाथाका टीका. नुसार अर्थ है।
___इसमें कहा है कि साधु ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि गुणका उपार्जन करनेके लिये अन्न पानादिके द्वारा अपने जीवनकी रक्षा करे । इससे मरते हुए प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश मादि देना भी साधुका कर्तव्य सिद्ध होता है क्योंकि प्रश्न व्याक
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