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सद्धर्ममण्डनम् । जीवोंकी रक्षाके साथ जीवित रहनेकी इच्छा नहीं वर्जित की है अत: उक्त गाथाओं का नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना मूर्खता है।
. सुयगडांग सूत्र श्रुत० १ अ० १५ के दशवी गाथामें लिखा है कि "जीवियं पीट्ठमोकिच्चा" इसका भाव यह है कि "साधु असंयम (हिंसा ) सहित जीवनको पीछे रख देवे" इससे प्राणियोंकी रक्षाके साथ जीवित रहना स्पष्ट सिद्ध होता है। .... इसी तरह सूय० श्रु० १ अ० ३ उ०४ के गाथा १५ में भी असंयम यानी हिंसा के साथ जीना ही निषेध किया गया है रक्षाके साथ जीनेका निषेध नहीं किया है वहां जो "नाव कांति जीवियं" यह वाक्य आया है उसका यही आशय है कि “साधु असंयम (हिंसा) के साथ जीवित रहनेको इच्छा नहीं करते" इससे जीवरक्षाके साथ जीवन की इच्छा करनेका निषेध नहीं सिद्ध होता । एवं सुयगडांग सूत्र श्रुत० १ अ० ५ उ०१ गाथा ३ में अपने जीवन के निमित्त दूसरे प्राणियों को भय देने, और हिंसादि पापोंके आचरण करनेसे नरक जाना कहा है प्राणियों को अभयदान देने, और उनकी रक्षा करने से नरक होना नहीं कहा है देखिये वह गाथा यह है:
"जेकेइ बाले इह जोवियही पावाईकम्माई करेंतिरुद्दा । ते घोररूवे तिमिसड्डन्यारे तीव्वाभितावे नरए पतन्ति"
(सूय० श्रु० १ अ० ५ उ० १ गाथा ३) अर्थात् जो अज्ञानी पुरुष, अपने जीवन के लिये दूसरे प्राणियोंको भय देता है और हिंसादि घोर कम करता है वह तीव्र तापयुक्त अन्धकार परिपूर्ण घोर नरकमें पड़ता है।
यहां प्राणियोंको भय देने, और उनकी हिंसा करनेसे नरक जाना कहा है प्राणियोंको अभयदान देने, और उनकी रक्षा करनेसे नरक जाना नहीं कहा है अतः इस गाथाका नाम लेकर हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्रागी की प्राणरक्षा करने के लिये उपदेश देने में पाप बतलाना एकान्त मिथ्या है।
इसी तरह सुय० श्रु० १ अ० १० गाथा तीसरीका नाम लेकर जीवरक्षा करने में पाप बताना मिथ्या है देखिये वह गाथा यह है:
"सुयक्खाय धम्मे वितिगिच्छतिन्ने लाढचरे ओय तुले पयासु आगंन कुज्जा इह जीविअट्ठी चयं न कुज्जा सुतवस्सिभिक्खू"
(सूय० श्रु० १ अ० १० गाथा ३)
अर्थ:
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इसी का
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