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अनुकम्पाधिकारः। ।
२३३ भी देते हैंमारने वाले और मरने वाले दोनों ही से वे जीव रक्षा करनेका उपदेश देते हैं। यह साधुका परम कर्तव्य है कि वह जीव रक्षा करनेका आदेश जगह जगह पहुंचा दें
और सभी जीवों को हिंसकको छुरीसे बचा दें। पहले कहा जा चुका है कि जीव रक्षाके लिये ही जैनागमका निर्माण हुआ है। अतः जीवरक्षाके लिये उपदेश देनेमें जो एकान्त पापकी स्थापना करते हैं वह एक प्रकारका हिंसक और मिथ्या दृष्टि हैं।
__'सुय गडांग सूत्रकी उक्त गाथाओंमें "नो जीविअंनो मरणावकंखी" इस वाक्यमें "नो अवकंखी" ये पद आये हैं इनको देख कर कई भ्रम जालमें पड़कर कहने लगते हैं कि “यहां तो जोवनको इच्छा करना साफ साफ वजित की गई है फिर साधु किसी मरते प्राणीकी रक्षा क्यों कर सकता है ? उन भ्रांत पुरुषोंसे कहना चाहिये कि जैसे सुयगडांग सूत्रकी उक्त गाथाओंमें "नो अवकंखई" यह पाठ आया है उसी तरह भगवती शतक १ उद्देशा ९ में "पुढवी कार्य अवकंखइ जाव तसकार्य अवकंखई" इस पाठमें "अवकखई" यह पाठ आया है इसका अर्थ, पृथिवी कायसे लेकर यावत् स कायके जीवोंको जीवनरक्षा की इच्छा करना है इसके विरुद्ध सुयगडांग सूत्रमें जीवन रक्षा की
इच्छा करना कैसे बर्जित की.आ सकती है ? मतः सुयगडांग सूत्रके उक्त पाठका यही • आशय है कि साधु चिरकाल तक जीते रहने की इच्छा नहीं करे यथाप्राप्त जीवन रक्षाकी इच्छा करनेका निषेध नहीं है अतः सुयगडांग सुत्रका नाम लेकर जीवरक्षाके लिये उपदेश देने में पाप कहना एकान्त मिथ्या है।
[बोल १३ समाप्त
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृष्ठ १४०। १४१ । १४२ के ऊपर सुयगडांग सूत्र श्रुत० १ अ० १५ गाथा १० तथा उक्त सूत्र श्रुत० १ अ०३ उ०४ गाथा १५ एवं उक्त सूत्र श्रुत० १ अ०५ गाथा ३ तथा उक्त सूत्र श्रुत० १ अ० १ गाथा ३ और उक्त सूत्र श्रुत० १ अ० २ उ० २ गाथा १६ का नाम लेकर हिंसकके हाथ से मारे जाने वाले प्राणी की प्राणरक्षा करने में पाप वतलाते हैं।. .
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भ्रमविध्वंसनकारकी लिखी हुई सुयगडांग सुत्रकी गाथामोंमें छ: कायके जीवोंकी हिंसा करके साधुको जीवित रहने की इच्छाका निषेध किया गया है परन्तु छः कायके
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