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अनुकम्पाधिकारः ।
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है । इस प्रकार जो जीवन प्राप्त नहीं है उसके पाने की इच्छा करना यानी चिर काल तक जीने की इच्छा करना “जीवनाशंसा" कहलाती है वही साधुके लिये वर्जित की गई है यथा प्राप्त जीवनकी इच्छा वर्जित नहीं की है अन्यथा उत्तराध्ययन और पूर्वोक्त भगवतीके मूल पाठसे ठाणाङ्ग सूत्रका स्पष्ट ही विरोध होगा अतः ठागाङ्ग सूत्रके मूल पाठ का नाम लेकर साधु अपने और दुसरेका जीवन नहीं चाहता यह कहना अज्ञान तथा एकान्त मिथ्या है।
कोई कोई कहते हैं कि "असंयतिकी प्राण रक्षा करनेसे असंयमका अनुमोदन लगता है" उनसे कहना चाहिये कि जो काम जिसको अच्छा नहीं लगता उसका अनुमोदन उसको नहीं लग सकता । साधु असंयतिको असंयम सेवनके लिये उपदेश नहीं देता और उसके असंयम सेवनको वह अच्छा भी नहीं समझता बल्कि वह असंयतिको असंयम सेवनका त्याग करनेके लिये उपदेश देता है फिर असंयतिकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश देनेसे साधुको उसके असंयम का अनुमोदन कैसे लग सकता है ? यदि असंयति के बच जाने मात्र साधुको असंयमका अनुमोदन लग जाय तो फिर कसाईको तारने के लिये भी अहिंसाका उपदेश न देना चाहिये क्योंकि अहिंसाका उपदेश सुनकर कसाई यदि असंयतिको न मारे तो वह बच सकता है और बच कर वह असंयमका सेवन कर सकता है । फिर कसाईको तारनेके लिये अहिंसाका उपदेश देने वालेको असंयमका अनुमोदन क्यों नहीं लगता ? यदि कहो कि कसाई को तारनेके लिये उपदेश देने पर यद्यपि असंयति बच जाता है और बच कर वह असंयमका सेवन भी कर सकता है तथापि साधुको असंयमका अनुमोदन नहीं लगता क्योंकि उसने असंयम सेवन करानेके लिये कसाईको अहिंसाका उपदेश नहीं दिया है तो इसी तरह यह भी समझो कि मरते प्राणी की प्राण रक्षा करनेके लिये जो उपदेश देता है वह उस प्राणीका आर्त रौद्र ध्यान छुड़ाना चाहता है और कसाई को भी पापसे बचाना चाहता है वह यह नहीं चाहता कि यह प्राणी असंयमका सेवन करे तो अच्छा हो इस लिये मरते हुए असंयति प्राणीका आर्त रौद्र ध्यान छुड़ानेके लिये उसकी प्राण रक्षा करनेसे असंयमका अनुमोदन बतलाना मिथ्यावादियों का कार्य्य है ।
( बोल १२ वां )
( प्रेरक )
भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १३८ पर सुय० सू० अ० १० गाथा २४ एवं सू० श्रुत० १ अ० १३ गाथा २६ वीं को लिख कर बतलाते हैं कि इन गाथा
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