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सद्धममण्डनम् ।
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यहां स्पष्ट लिखा है कि अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये साधुको आहार पानीका अन्वेषण करना चाहिये और टीका कारने भी लिखा है कि "पाणवत्तिया ए'त्ति प्राण प्रत्ययं जीवत निमित्तम् अविधिनाह्यात्मनोऽपि प्राणोपक्रमणे हिंसा स्यात् ।'
अर्थात् अपने जीवनकी रक्षा करनेके लिये साधुको आहारका अन्वेषण करना चाहिये क्योंकि शास्त्रीय विधिसे विपरीत अपने प्राणोंको छोड़ना भी हिंसा करना है। यह उक्त टीकाका अर्थ है। यहां टीकामें साधुको अपने जीवनकी रक्षाके लिये आहार करना बतलाया है और मूल पाठमें भी यही बात कही है इस लिये साधु अपने जीवनकी रक्षा नहीं करते यह कहना मिथ्या है। जब कि साधु अपने प्राणोंकी रक्षा करते हैं तब वह दूसरे प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश देवें तो इसमें पाप कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको विचार लेना चाहिये। उत्तराध्ययन सुत्रकी ऊपर लिखी हुई गाथामें जैसे अपने प्राणकी रक्षाके लिये साधुको आहार करने का विधान किया गया है उसी तरह भगवती सुत्र शतक १ उद्दशा ९ में पृथिवी काय आदिकी रक्षाके लिये साधुको प्रासुक और एषणिक आहार लेने का विधान किया है । वह पाठ यह है :
"फोसु एसणिज्जं भुजमोणे समणे निग्गंथे आयाए धम्म नाईकमइ आयाए धम्म अणइक्कममाणे पुढविकार्य अवकंखइ जाव तसकार्य अवकंखई"
(भ० श० १ उ०९) अर्थ :
___ जो साधु प्रासक और एषणिक आहार लेता है वह अपने धमका उल्लंघन नहीं करता और अपने धर्मका उल्लंवन नहीं करता हुआ साधु पृथिवी कायसे लेकर यावत् त्रस कायकी प्राण रक्षा करना चाहता है।
यहां पृथिवी कायसे लेकर यावत् त्रस कायके प्राणियोंकी प्राणरक्षा करनेके लिये साधुको प्रासुक और एषणिक आहार लेनेका विधान किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूसरे प्राणियोंकी प्राण रक्षा करना भी साधुका कर्तव्य है। अतः ठाणाङ्ग सुत्रका नाम लेकर अपनी तथा दूसरेको प्राण रक्षा साधु नहीं चाहते यह कहने वाले अज्ञानी हैं।
ठाणाङ्ग सूत्रके दशवें ठाणामें साधुको प्राप्त जीवनकी इच्छा करना वर्जित नहीं की है चिर काल तक जीते रहने की इच्छा वर्जित की गई है। वहां साधुको "जीवनाशंसा"का निषेध किया है "आशंसा" नाम है नहीं पायी हुई चीजके पाने का है। अभिधान राजेद्र कोशमें लिखा है "अप्राप्त प्रापणमाशंसा" अर्थात् नहीं पायी हुई चीजको पाना आशंसा
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