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अनुकम्पाधिकारः ।
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गृहस्थ माग जलाना या बुझाना चाहेगा तब तब साधु उसे समझा बुझा कर आग जलाने या बुझानेका निषेध कर सकता है इस प्रकार गृहस्थके तरनेमें और ज्यादा सुविधा ही होगी परन्तु शास्त्रकार गृहस्थके मकानमें साधुका रहना वर्जित करते हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अपने स्वार्थके लिये ही साधुको पूर्वोक्त भावना करना बुरा है जीव रक्षा करना बुरा नहीं है अत: उक्त पाठका उदाहरण देकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना अज्ञान समझना चाहिये।
(बोल ११ वां समाप्त)
(प्रेरक)
भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १३८ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दशका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं :- “अथ अठे पिण कयो जीव णो मरणो आपणो वान्छणो नहीं तो पारको क्यांने वान्छसी" इत्यादि लिख कर हिंसक के हाथसे मारे जाने वाले प्राणोकी प्राण रक्षा करनेमें एकान्त पाप बतलाते हैं ।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) : . भ्रमविध्वंसन कारने भ्र० वि० पृ० ३५४ में लिखा है कि "अथ अठे कसो साको पानोमें डूबतीने साधु बाहिरे काढे तो आज्ञा उल्लंघे नहीं" इनके मतानुयायियोंसे पूछना चाहिये कि साधु जब कि अपना या दूसरेका जीवन ही नहीं चाहता तब वह पानी में डूबती हुई साध्वीको क्यों निकालता है ? तथा अपनी प्राण रक्षाके लिये साधु क्यों आहार करता है ? उत्तराध्ययन सूत्रके २६ वें अध्ययनमें अपनी प्राण रक्षाके लिये साधु को आहार करनेका विधान किया गया है वह गाथा यह है :___ "वेयण वेयावच्चे इरियहाए य संजमहाए ।
तह पाण वत्तिवाए छट्ठ पुण धम्म चिन्ताए"
भर्थात् (१) क्षुधा और पिपासासे उत्पन्न हुई वेदनाकी निवृत्तिके लिये (२) क्षधा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य गुरु आदिको सेवा नहीं कर सकता अतः गुरु आदिकी सेवा करनेके लिये (३) क्षुधा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य विधिवत् ाि समितिका पालन नहीं कर सकता अत: ईर्ष्या समितिका पालन करने के लिये (४) क्षुधातुर होकर यदि सचित्त वस्तुका आहार कर लेवे तो संयम ही नहीं कायम रह सकता अतः संयमकी रक्षाके लिये (५) अपने प्राणोंकी रक्षा करने के लिये (६) धर्मको विन्साके लिये, साधुको आहार पानीका अन्वेषण करना चाहिये।
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