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अनुकम्पाधिकारः।
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निवासभूत गृहमें क्यों नहीं रहते ? क्योंकि आपके हिसाबसे मरते प्राणी की प्राणरक्षा करनेकी भावना न करता हुआ साधु यदि गृहस्थके निवासभूत गृहमें भी रहे तो उसे कर्मबन्ध नहीं हो सकता है तथा दूसरी जगह रहता हुआ भो यदि मरते प्राणीकी प्राणरक्षा की भावना करे तो उसे कर्मबन्ध होगा। ऐसी दशामें गृहस्थके निवासभूत मकानमें ही साधुका रहना इस पाठमें क्यों वर्जित किया गया है ? सिर्फ मरते प्राणीकी प्राणरक्षा की भावना करना वर्जित कर देते परन्तु शास्त्रकारने मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करनेकी भावनाको वर्जित नहीं करके गृहस्थके निवासभूत मकानमें साधुका रहना वर्जित किया है अतः मरते जीवकी रक्षाके लिये उपदेश आदिमें पाप कहना अज्ञान है।
(बोल १० वां समाप्त)
(प्रेरक) . भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १३७ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ अठे इम कह्यो जे अग्नि लगाव तथा मत लगाव वुझाव इम पिण साधुने चिन्तवणो नहीं। तो लाय मत लगाव इहां स्यू आरम्भ छै ते मांटे इसो चिन्तवणो नहीं। इहां ए रहस्य -जे अग्निथी कीडियां आदि घणां जीव मरस्ये त्यां जीवांरे जीवणो वान्छीने इम न चिन्तवणो जे अग्नि मत लगाव । अने अग्निरो आरम्भ तेहनो पाप टालिवा तेहने तारिवा अनिसे आरम्भ करवारा त्याग करा यां धर्म छै पिण जीवणो वांछ्या धर्म नहीं" (भ्र० पृ० १३७)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) . . आचारांग सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह पाठ
__"आयाणमेयं भिक्खूस्स गाहावइहिं सद्धि वसमाणस्स इह खलुगाहावई अप्पणो सघटाए अगणिकायं उजालिजावा पन्जालिजावो विजावेजवा, अहभिक्ख उच्चावचं मणं नियच्छज्जा एते खलु अगणिकायं उज्जालेंतुवा मावाउज्जालेंतुवा पज्जालेंतुवा मावापज्जालेंतु विज्जतुवा मावाविज्जतुवा"
(आचारांग श्रु० २ ० २ ३०१)
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