________________
२३२
सद्धर्ममण्डनम् ।
ओंमें साधुको अपने जीने और मरनेकी इच्छा करना वर्जित की गई है अतः दूसरोंके मरने और जीने की इच्छा भी न करनी चाहिये । इस प्रकार साधु जब कि दूसरे प्राणीके जीवनकी ही इच्छा नहीं रखता तब फिर वह मरते प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश कैसे दे सकता है ? अतः मरते प्राणीको प्राण रक्षाके लिये उपदेश देना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
सुय गडांग सूत्रकी दो गाथाओं का नाम लेकर हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये धर्मोपदेश देने में एकान्त पाप कहना मिथ्या है। उन गाथाओं में भी ठाणाङ्ग ठाणा दशमें कहे हुये “जीविताशंसा संप्रयोग" मरणाशंसा संप्रयोग" की तरह साधको चिर काल तक जीवित रहने और शीघ्र मर जानेकी इच्छा ही बर्जित की गई है यथा प्राप्त जीवन और यथा काल मरणकी इच्छा वर्जित नहीं की है अन्यथा उत्तराध्ययन सूत्रकी पूर्व लिखित गाथाके साथ सूय० की गाथाओंका भी विरोध पड़ेगा क्योंकि उत्तराध्ययनकी पूर्व लिखित गाथामें, साधुको अपने जीवन रक्षार्थ आहार अन्वेषण करनेका विधान किया है और भगवतीजीके पूर्व लिखित पाठमें पृथिवी कायसे लेकर यावत् त्रस कायकी रक्षाके लिये साधुको प्रासुक और एषणिक आहार लेनेका विधान किया है ऐसी दशामें सूय गहांग सूत्रको गाथाओंमें साधुको अपने जीवन और मरणकी इच्छा करना नहीं वर्जित की जा सकती है ? क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र और भगवतीके उक्त पाठोंसे विरोध पड़ता है अतः सुय गडांग सूत्रकी गाथाओंका यही भाव है कि साधु चिर काल तक जीवित रहने और शीघ्र मर जानेकी इच्छा न करे यथा प्राप्त जीवन और यथा काल मरगको इच्छाका निषेध नहीं किया है। अतएव सुय गडांग सूत्र की उक्त गाथाओंको टीकामें टीका कारने लिखा है कि
“जीवित मसंयम जीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावर जंगम जन्तुदण्डेन नाभिकांक्षी स्यात्"
___ अर्थात् साधु, स्थावर जंगम जन्तुओंको दण्ड देकर असंयमके साथ जीवित रहने, या चिर काल तक जीवित रहनेकी इच्छा न करे।
यहां प्राणियोंकी हिंसा करके तथा चिर काल तक जीते रहनेकी इच्छा करना साधुको वर्जित की गई है परन्तु प्राणियोंकी रक्षा करके और यथा प्राप्त जीवित रहनेकी इच्छा वर्जित नहीं की है। इस लिये साधु जीवोंकी रक्षाके साथ यथा प्राप्त जीवनकी इच्छा करते हैं और इसी इच्छासे प्रेरित होकर वे मरते प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com