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सद्धर्ममण्डनम् ।
वयंतिया भंतिवा उद्दवंतिवा अहभिक्खू उच्चाव मणं नियच्छेना एए खलु अन्नमन्न आकोसंतुवा मावा आक्कोसंतु जाव मावा उद्दवितुवा"
(आचारांग श्रु० १ अ० २ उ०१) अर्थः___ गृहस्थ जिस मकानमें रहते हैं उसमें साधुफा रहना कर्मबन्धका कारण होता है क्योंकि उस मकानमें रहते हुए साधुके समक्ष यदि उस गृहका स्वामी या, कर्मकरी आदि, परस्पर आक्रोश करते हों या एक दूसरेको दण्ड आदिसे मारते हों रोकते हों या उपद्रव करते हों यह देख कर साधु अपना मन ऊंचा नीचा करे, अर्थात् ये लोग परस्पर आक्रोश मत करें मत मारे मत रोके, मत उपद्रव करें या ये लोग पूर्वोक्त कार्य करें तो यह कर्मवन्धका कारण होता है इसलिये गृहस्थ के निवास स्थानमें साधुको नहीं रहना चाहिए। यह इस पाठफा भावार्थ है।
इस पाठमें कहा है कि जिस मकानमें सपरिवार गृहस्थ रहता हो उसमें साधुका रहना कर्मबन्धका कारण है क्योंकि गृहस्थोंके घरोंमें कभी कभी पारिवारिक कलह भी होता है वह यदि साधुकी मौजूदगीमें हो और साधु उसे देख कर अपने मनको ऊंचा नीचा करे तो यह कमबन्धका कारण होता है। यहां मत मारो मत रोको मत उपद्रव करो इस भावनाको ऊंचा मन कहा है और मागे रोको उपद्रव करो इस भावनाको नीचा मन कहा है। परिवार वालोंके घरमें रहने पर साधुकी ऐसी भावना होना सम्भव है इसलिये शास्त्रमें परिवार वालोंके निवास स्थानमें साधुका रहना वर्जित किया है।
___ इस पाठसे यह मतलब नहीं निकलता कि कोई हिंसक किसी पञ्चेन्द्रिय जीवका घात करना चाहता हो तो उसे देख कर न मारनेकी भावना करनेसे साधुको कर्मबन्ध होता है या उसे पाप लगता है क्योंकि इस पाठमें पारिवारिक कलहका वर्णन है जो कि गृहस्थोंके घरोंमें कभी कभी हो जाया करता है वह कलह किसीकी हिंसाके लिये नहीं होता क्योंकि परिवारमें परस्पर बड़ा भारी स्नेह होता है अतः वह कलह एक प्रकारका प्रणय कलह है उसका असर गृहस्थके साथ रहनेसे साधु पर भी पड़ सकता है उसकी निबृत्ति के लिये गृहस्थके मकानमें साधुका रहना वर्जित किया है हिंसकके हाथसे भारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षाके भयसे नहीं अतः इस पाठका नाम लेकर हिंसकके हाथ से मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये उपदेश देनेमें पाप कहना अज्ञान का परिणाम है। - जो लोग इस पाठका तात्पर्य यह बतलाते हैं कि "किसी मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेकी भावना करना अनुचित है” उनसे कहना चाहिये कि आप लोग गृहस्थके
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