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सधममण्डनम् ।
इसका अर्थ करते हुए शीलांकाचार्य अपनी टोकामें लिखते हैं "वध्याचौर पारदारिकादयोऽवध्यावा तत्कर्मानुमति प्रसंगादित्येवं भूतां वाचं स्त्रानुष्ठान परायणः साधुः पर व्यापार निरपेक्षो न निसृजेत्” अर्थात् वध दण्ड देने योग्य चोर और पारदारिक प्राणीको साधु, वध दण्ड न देने योग्य निरपराधी न कहे क्योंकि अपराधीको निरपराधी कहने से साधुको उसके कार्यका अनुमोदन लगता है अत: अपने अनुष्ठानमें पराor और दूसरोंके व्यापारसे निरपेक्ष साधुको पूर्वोक्क बात न कहनी चाहिये । यह उक्त मूल पाठक टोकानुसार अर्थ है । यहां मार और मत मार न कहने का कोई प्रसंग नहीं है यहां तो वध दण्ड देने योग्य अपराधीको निरपराधी कहनेका निषेध किया है अतः इस गाथाका नाम लेकर निरपराधी प्राणीकी प्राण रक्षा करनेके लिये मत मार कहनेका निषेध करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये ।
आगे चल कर इस गाथाका तात्पर्य बतलाते हुए भ्रमविध्वंसन कारने जो यह लिखा है कि 'द्वेष आणीने हणो इम पिण न कहिगो, अनेत्यांजीवांरे राग आणीने मत हो इमपि न कहिणो" यह भी अयुक्त है क्योंकि मूल गाथामें न तो राग शब्द है और न द्वेष शब्द, परन्तु भ्रम विध्वंसनकारने दया धर्म को पाप बतलाने के लिये अपने मनसे राग और द्वेष घुसेड़ दिये हैं । इस गाथामें भाषा सुमतिका उपदेश किया गया है राग द्वेषकी कोई चर्चा नहीं है व्यतः मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेमें रागका नाम लेकर पाप बतलाना मुलगाथाका अभिप्राय न समझनेका परिणाम है ।
अब शीलांकाचार्य की टीका लिख कर इसका अर्थ बतलाया जाता है जिससे उक्त टीका का नाम लेकर भ्र० वि० कारका फैलाया हुआ भ्रम दूर हो जाय । " तथाहि सिंह व्याघ्र मार्जारादीन् परसत्वव्यापादन परायणान् दृष्ट्वा साधुर्माध्यस्थ्य मवलंवयेत् तथाचोक्तम् - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्यानि सत्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनेयेषु”
अर्थात् जीवों की हिंसा करनेमें तत्पर रहने वाले सिंह, व्याघ्र, मार्जार आदि प्राणियोंको देख कर साधु मध्यस्थ होकर रहे । कहा है कि सब जीवोंके साथ मैत्री और अधिक गुणवानोंमें प्रमोद, क्लेश पाते हुए जीवों पर करुणा और अविनेय प्राणियों पर मध्यस्थ भाव रखना चाहिये ।
यहां टीकामें “सिंह व्याघ्र मोर्जारादीन" इस पदमें जो आदि शब्द आया है उस से पचेन्द्रियघातक महारम्भी प्राणियोंका ग्रहण होता है साधुके सिवाय सभी जीवोंका नहीं इसलिए सिंह व्याघ्र और पञ्चेन्द्रिय जीवोंका विघातक प्राणियोंके विषय में ही मौन रहना, या मध्यस्थ भाव रखना शास्त्र सम्मत है क्लेश पाते हुए हीन दीन दुःखी जीवोंके
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