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अनुकम्पाधिकारः ।
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अविवेक पूर्ण है । हाथी के आनेके पहले ही उसका मण्डल जीवोंसे इतना ज्यादा भर गया था कि स्वयं हाथीको भी अपने उठाये हुए पैर को नीचे रखनेका स्थान नहीं मिला ऐसी दशामें वह हाथो दावानल में जलते हुए जीवों को लाकर कहां रखता और उनको लानेके लिये वह किस मार्गसे जाता क्योंकि वह स्थान जीवोंसे इतना ज्यादा भर गया था कि कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं थी अतः भीषणजीका पूर्वोक्त कथन एकान्त मिथ्या समझना चाहिये । वास्तवमें हाथीने शशककी प्राणरक्षाके लिये अपना उठाया हुआ पैर नीचे नहीं रखा और दूसरे प्राणियों की प्राग रक्षाके लिये दूसरी जगह भी नहीं रक्खा अतः हाथीके उदाहरणसे जीव रक्षा में पाप बतलाना मिथ्या दृष्टियों का का है।
बोल ८ वां समाप्त
( प्रेरक )
भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १३४ पर सुय गडांग सूत्रकी गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं। :―
अथ अठे को जीवांने मार तथा मत मार एहवू पिग वचन न कहिणो इहां ए रहस्य - महणो महणो तो साधुने उपदेश छै ते तारिवाने अर्थे उपदेश देवे अने इहां वयों द्वेष आणीने हणो इम पिग न कहिणो अनेत्यां जीवांरे राग आणीने मतहणो इम पिण न कहिणो मध्यस्थपणे रहिणो" ( ० पृ० १३४ )
इनके कहनेका मा यह है कि हिंसकके हाथसे मारे जाते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा के लिये 'मन मार' कहना मरते जीव पर राग लाना है, किसी जीव पर राग करना साधुको उचित नहीं है अतः मरते जीव की प्राण रक्षा करनेके लिये साधुको 'मत मार ' यह उपदेश न देना चाहिये ।
इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
भ्रम विध्वंसनकारने सुय गडांग सूत्रकी गाथाका मूल अर्थ बतलाते हुए जो यह लिखा है कि "अथ अठे को जीवांने मार तथा मत मार एहवू पिण वचन न कहिणे' अर्थ ही मिथ्या है। भ्रम विध्वंसनकार इस गाथाका ठीक ठीक अर्थ नहीं समझ सके। इस गाथामें कहा है कि
यह
“ वज्झा पाणा न वज्ज्ञेति इति वायं न नीसरे "
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