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दानाधिकारः।
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सार्मिक होते हैं । वे चतुर्विध संघमें माने जाते हैं इस लिये प्रवचनसे साधर्मिक हैं परन्तु लिङ्गसे नहीं क्योंकि रजो हरण और मुख वस्त्रिका उनके नहीं हैं। यह उक्त टीका का अर्थ है। ____ यहां टीकाकारने प्रवचनके द्वारा श्रावक को साधर्मिक कहा है इस लिये श्रावक भी श्रावकका साधर्मिक है अतः उसको वत्सलता करना प्रवचन वत्सलता रूप सम्यक्त्व का आचार पालन करना है एकान्त पाप नहीं इसलिये श्रावककी वत्सलता करनेमें एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध और एकान्त मिथ्या समझना चाहिये।
( बोल ३३ वां समाप्त) (प्ररूपक)
भगवती शतक १२ उद्देशा में अपनेसे श्रेष्ठ सहधमी भाईको भोजन देना, पोषध धर्मकी पुष्टिमें माना है वह पाठ यह है :
_ "तएणं अम्हे तं विमुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसादे माणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो"
(भगवती शतक १२ उ०१) अथ:
शल श्रावकने कहा कि हे देवानु प्रिय ! आप, विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य तैयार करावें हम लोग अशनादि चतुर्विध आहार खाकर पोषध करेंगे।
यहां अपने सहधर्मीभाईको भोजन कराना पोषध धर्मकी पुष्टिमें माना है इस लिये श्रावकको भोजनादि देकर धर्ममें उसकी श्रद्धा बढ़ाना एकान्त पाप नहीं किन्तु पोषध धर्मकी पुष्टि है।
यदि कोई कहे कि पोषधमें आहार त्याग करनेका विधान किया गया है फिर यहां आहार खाकर पोषध करना कैसे कहा गया ? तो इस आशंकाका समाधान देते हुए टीकाकार यह लिखते हैं :
"इह किल पोषधं पर्व दिनानुष्ठानम् तच्च द्वधा इष्टजनभोजनदानादिरूप माहार पोषधञ्च तत्र शंखः इष्ट जन भोजनदानादिरूपं पोषधं कर्तु काम: यदुक्तवांस्तदर्शयतेद मुत्तम्"
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