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अनुकम्पाधिकारः ।
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हिंसक के हाथ से मारे जाने वाले जीव की प्राण रक्षा के लिये भी भगवान् का धर्मोपदेश देना सिद्ध होता है क्योंकि जैसे हिंसकको हिंसाके पापसे बचाना उसका उपकार करना है उसी तरह हिंसक हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी रक्षा करना भी उसका उपकार करना है । इन गाथाओं का अभिप्राय बतलाते हुए टीका कारने भी यह लिखा है
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"असावपि तीर्थ कृन्नामकर्मणः क्षपणाय न यथा कथं चिदतोऽसावग्लान: इह मस्मिन् संसारे आय क्षेत्र वा उपकार योग्ये आय्र्याणां सर्वहेयधर्मदूरवर्तिनां तदुपकाराय धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति "
अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी अपने तीर्थकर नाम कर्मका क्षय करनेके लिये इस संसारमें, अथवा उपकार योग्य इस आर्य्य क्षेत्र में त्यागने योग्य सभी बुरे धर्मों से अलग रहने वाले आय क्षेत्र वासी मनुष्योंका उपकारके लिये धर्मोपदेश देते हैं ।
यहां टीकाकारने भी मूल गाथाका अभिप्राय बतलाते हुए आय क्षेत्र वासी मनुsrint उपकारके aिये भगवान्का धर्मोपदेश करना बतलाया है इस लिये हिंसक के हाथसे मारे जाने वाले जीवोंकी रक्षा के लिये उपदेश देना भी धर्म सिद्ध होता है क्योंकि मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करना उसका सबसे प्रधान उपकार है। अतः भगवान् महावीर स्वामी आय्य क्षेत्रके प्राणियों की प्राण रक्षा रूप उपकारके लिये भी धर्मोपदेश करते थे यह बात इस गाथा और इसकी टीकासे स्पष्ट सिद्ध होती है । तथापि इन गाथाओं का नाम लेकर यह कहना कि "भगवान् आय्य क्षेत्रके जीवोंकी प्राण रक्षा करनेके लिये उपदेश नहीं देते थे" एकान्त मिथ्या है।
डांग सूत्रकी इन गाथाओं के पहलेकी गाथामें मरते जीवकी प्राण रक्षा करने के लिये भगवान्का धमोपदेश देना स्पष्ट लिखा है इस लिये वह गाथा भी यहां लिखी जाती है ।
"समिच्च लोगं तस थावराणं खेमंकरे समणे माहणेवा । आइक्ख माणेवि सहस्समज्झे एगंतयं सारयति तहच्चे" ( सुय० सू० २ अ० ६ गाथा ४ )
टीका -
“स्यादेतत् धर्मदेशनया प्राणिनां कश्चिदुपकारो भवत्युतनेति, भवतीत्याह “समिच्च लोग" मित्यादि सम्यग्यथावस्थितं लोकं षड्द्रव्यात्मकं मत्वा अवगम्य केवला लोकेन परिच्छिद्य त्रस्यन्तीति त्रसाः नम्र नाम कर्मों दया द्वीन्द्रियादयः, तथा तिष्ठन्तीति स्थारा: स्थावरनामकम दयात्स्थावराः पृथिव्यादयस्तेषां मुभयेषा मपि जन्तूनां क्षेमं
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