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अनुकम्पाधिकारः ।
वर्तमान सामीप्ये लट् ततो हनिष्यन्ते इत्यर्थः । पाठान्तरतः "हमिहंति” त्ति, सुस्पष्टम् । सुवहव: अति प्रभूता: “जिय" त्ति जीवाः एतदिति जीव हननं तुः एव कारार्थी नेत्यनेन योज्यते ततः नतु नैव निः श्रेयसं कल्याणं परलोके भविष्यति पाप हेतुत्वादस्येति भावः भवान्तरेषु परलोकभीरुत्वस्यात्यन्तमभ्यस्ततयैवममिधान मन्यथा चरमशरीरत्वादति शयज्ञानित्वाच्च भगवतः कुत एवं विध चिन्तावसरः । एवंच विदितभगवदाकूतेन सारथिना मोचितेषु सत्रेषु परितोषितोऽसौ यत्कृतवांस्तदाह "सो" इत्यादि सुत्तकच ेति कटि सूत्र मर्पयतीति योगः किमेतदेवेत्याह आभरणानि सर्वाणि शेषाणीति गम्यते ।” अर्थः
इस प्रकार सारथीके कहने पर भगवान् नेमिनाथजीने जो किया बह इन गाथाओं में कहा गया है। बहुत से प्राणियोंका विनाशरूप अर्थ को बतलाने वालो सारथी की वाणी सुन कर बड़े बुद्धिमान नेमिनाथ जी, उन प्राणियों पर दयायुक्त हो कर सोचने लगे ।
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यदि ये, बहुतसे प्राणी मेरे कारण यानी मेरे विवाहमें आये हुए लोगोंके भोजनार्थ मारे जाएंगे तो यह कार्य्य परलोकमें कल्याणकारक नहीं होगा । (यद्यपि भगवान् नेमिनाथजी अतिशय ज्ञानवान और चरम शरीरी होने के कारण उसी भवमें मोक्ष जाने वाले थे अत: उन्हें परलोककी चिन्ता करनेकी आवश्यकता न थी तथापि दूसरे भवों परलोक से डरनेका जो उनको अत्यन्त अभ्यास था उस अभ्यासके कारण उन्हें पूर्वोक्त चिन्ता हुई थी ) भगवान नेमिनाथजीका अभिप्राय समझ कर सारथीने जब उन प्राणियोंको बन्धन से मुक्त कर दिया तब भगवान ने प्रसन्न होकर कानोंके कुण्डल और कटिसूत्र तथा दूसरे सब आभूषण उतार कर सारथीको इनाम दे दिये । यह उक्त गाथाओं का टीकानुसार अर्थ है ।
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में कहा है कि “सानुकोसो जीएहिउ ? अर्थात् उन प्राणियों पर भगवान नेमिनाथजीको अनुक्रोश यानी दया उत्पन्न हुई । दया नाम दूसरेके दुःख को दूर करना यानी दुःखीकी रक्षा करना है कहा भी है “पर दुःख प्रहाणेच्छा दया" अर्थात् दूसरे दुःखको दूर करने की इच्छाका नाम दया है। यदि मरते हुए प्राणीकी रक्षा करना एकान्त पाप होता तो भगवान नेमिनाथजी को उन जीवों पर दया क्यों उत्पन्न होती अतः उक्त गाथाओंसे मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करना परम धर्म सिद्ध होता है ।
tataमलजीने जो यह लिखा है कि "म्हारे कारण यां जीवाने हणे तो एकारणज मोने परलोक कल्याणकारी भलो नहीं इम विचारि पाछा फिरथा पिण जीवने छुडाया चाल्यो नहीं" यह मिथ्या है। भगवान नेमिनाथजी जीवोंकी रक्षाके लिये और उनकी
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