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सद्धर्ममण्डनम् ।
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शान्तिः रक्षा तत्करण शीलः क्षेमंकरः । श्राम्यतीति श्रमण: द्वादश प्रकार तपोनिष्टप्तदेहः तथा मान इति प्रवृत्तिर्यस्यासौ मानो ब्राह्मगोवा स एवं भूतो निर्ममो राग द्वेष रहितः प्राणिहिताद्यर्थ न पूजालाभ ख्यात्याद्यर्थ धर्ममाचक्षागोऽपि प्राग्वत् छद्मस्थावस्थायां मौनव्रतिक इव वाक्संयत एव उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वाद्भाषागुणदोषविवेकज्ञतया भाषनैव गुगावाप्तेः अनुत्पन्न दिव्य ज्ञानस्यतु मौन व्रतिकत्वेनेति । तथा देवासुर नर तिर्य्यक् सहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः पंकाधारपंकजवत्तदोषव्यासंगाभावान्ममत्व विरहा दाशंसादोष विकलत्वादेकान्तमेवासौ सारयति प्रख्यातिं नयति साधयतीति यावत् । agesपिरि करावस्थयोरस्ति विशेषः प्रत्यक्षेणैवोपालभ्यमानत्वात्सत्यम् - अस्ति विशेषो वाह्यतो नत्वतरतोऽपि दर्शयति - तथा प्राग्वदर्चा लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य स तथार्चः यदिवा अर्चा शरीरं तच्चप्राग्वद्यस्य सतथार्चः । तथाहि असावशोकाद्यष्ट प्राति- हाय्र्योपेतोऽपि नोत्सेकं याति नापि शरीरं संस्कारायत्त विदधाति सहि भगवान् आत्यन्तिक राग द्वेष प्रहाणादेकाक्यपि जन परिवृतोऽप्येकाकी न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चि द्विशेषोऽस्ति । तथा चोक्तम् "राग द्वेषौ विनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि । अथनो निर्जितावेतौ किमरण्ये करिष्यसि" इत्यतो वाह्य मनंगमान्तरमेव कषायजयादिकं प्रधानं 'कारण मिति स्थितम्”
अर्थ :
भगवान् महावीर स्वामीके धर्मोपदेश से प्राणियों का कुछ उपकार होता था या नहीं ? कहते हैं कि होता था । भगवान् महावीर स्वामी, केवल ज्ञानसे षड्द्रव्यात्मक orest यथार्थ रूपसे जान कर द्वीन्द्रियादिक त्रस और पृथिवी आदि स्थावर प्राणियों की स्वभावसे ही रक्षा, शान्ति या क्षेम करते थे । तथा बारह प्रकारकी तपस्यासे अपने 'शरीरको तपाये हुए और माहन यानी प्राणियोंको अहिंसाका उपदेश करते हुए ममता रहित होकर प्राणियों के हित के लिये धर्मोपदेश करते थे उन्हें अपनी पूजा प्रतिष्ठा मान बड़ाई आदिको इच्छा न थी । भगवान् धर्मोपदेश करने के समय में भी पहलेके समान ही मोन प्रतिककी तरह वाक् संयत थे । तात्पर्य यह है कि छद्मस्थावस्था में जैसे भगवान् मौन प्रतिक थे उसी तरह केवल ज्ञान होने पर धर्मोपदेश देते हुए भी मौन व्रतिकके समान ही थे क्योंकि दिव्य ज्ञान उत्पन्न होने पर उन्हें भाषा के बोल ग ही था दोष नहीं था और जब तक वे deas मौन रहने में ही गुग था । भगवान् महावीर स्वामी, यद्यपि हजारों देवता असुर मनुष्य और तिर्योंके बीचमें रहते थे तथापि कीचड़में रहने वाले कमलकी तरह दोष से
गुण और दोषके ज्ञान केवल ज्ञानी नहीं हुए थे
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