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सद्धर्ममण्डनम् ।
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"नो काम किच्चा नयबालकिच्चा राजाभियोगेण कुतो भयेणं । वियागरेज्जा पसिणं नवावि सकाम किच्चे इह आरियाणं ।
गन्तावतत्था अदुवा अगंता वियागरेज्जा समिया सुपन्ने । अनारिया दंसणतो परीत्ता इति संकमाणो न उवेति तत्थ "
( सुय० श्रुत० ५ अ० ६ गाथा १७-१८ )
अर्थः
गोशालक मतको खण्डन करनेके लिये आर्द्र मुनि कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी विना इच्छा कोई कार्य नहीं करते। जो बिना बिचारे काम करता है वह इच्छाके बिना भी का करता है और वह अपने या दूसरेका जिससे अनिष्ट हो ऐसा भी काट कर डालता है परन्तु भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ सर्वदर्शी और परायेके हित करनेमें तत्पर रहते हैं जिससे अपना या दूसरेका उपकार नहीं होता ऐसा कार्य्यं भगवान् नहीं करते । भगवान् अपनी प्रतिष्ठा के लिये अथवा किसी राजा महाराज आदिके दबाव से धर्मोपदेश नहीं देते क्योंकि उनकी प्रवृत्ति भबसे नहीं होती । यदि कोई कुछ पूछता है तो उसका उपकार होता देख कर भगवान् उत्तर देते हैं अन्यथा नहीं देते। बिना पूछे भी लाभ समझने पर भगवान् उपदेश देते हैं । अनुत्तर विमानवासी देवता और ममःपर्याय ज्ञानियोंके प्रश्नोंके उत्तर भगवान् मनसे ही देते हैं वाणीद्वारा नहीं क्योंकि उन्हें वाणीद्वारा उपदेश देनेकी आवश्यकता नहीं है ।
भगवान् महावीर स्वामी यद्यपि वीतराग हैं तथापि अपने तीर्थकर नाम कमका क्षय करने के लिये और उपकार योग्य आर्य्य क्षेत्रके मनुष्यों का उपकार के लिये आक्षेत्र में उपदेश देते हैं । १७
भगवान् महावीर स्वामो दूसरोंके हित साधनमें प्रवृत्त रहते हैं इस लिये वह शिक्षा देने योग्य पुरुषके निकट जाकर भी उपदेश देते हैं, वह जिस प्रकार भव्य जीवोंका कल्याण देखते हैं उसी तरह काय्य करते हैं, वह नहीं जाकर भी उपदेश देते हैं । उपकार होता देख कर वह जाकर भी उपदेश देते हैं और उपकार न होता देख कर वहां रहते हुए भी उपदेश नहीं देते भगवान्को किसीसे भी राग द्वेष नहीं है, चक्रवर्ती राजा हो चाहे दरिद्र हो सबको वह एक दृष्टिसे देखते हैं । पूछने पर या न पूछने पर वह सबको समान रूपसे धर्मोपदेश देते हैं । भगवान् अनार्य्य देशमें धर्मो . पदेश देनेके लिये इस कारण नहीं जाते कि वहांके निवासी दर्शन भ्रष्ट और ऐहिक सुखको ही अपना अन्तिम लक्ष्य समझकर परलोकको अङ्गीकार नहीं करते। उन लोगोंको भाषा और कर्म भी आर्य पुरुषोंसे विपरीत होते हैं इस लिये वहां उपकार होता नहीं देख कर भगवान् अनार्य्य देशमें नहीं जाते।
इन गाथाओं में कहा है कि “भगवान् महावीर स्वामी आय्य क्षेत्रके मनुष्योंके उपकार के लिये और अपने तीर्थकर नाम कर्मका क्षय करनेके लिये उपदेश देते हैं" इससे
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