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अनुकम्पाधिकारः।
२११ ने तो इस विचारेको कुछ भी नहीं दिया है" इसके अनन्तर उन रानियों में अपने अपने उपकारके विषयमें कलह होना आरम्भ हुआ उस कलहको शान्तिके लिये राजाने चोरको बुला कर पूछा कि “इन रानियोंमें सबसे अधिक तुम्हारा किसने उपकार किया है ?" चोर ने कहा कि-मरण रूपी महाभयसे मैं इतना डरा हुआ था कि स्नान आदिका सुख मुझको कुछ भी नहीं मालूम हुआ। जव मैने सुना कि मुझे अभयदान मिला है तब मुझ को नवीन जीवन प्राप्तिके समान महान् आनन्द प्राप्त हुआ। अत: सब दानोंमें अभयदान की श्रेष्ठता स्पष्ट सिद्ध होती है।
__ यहां, मारे जाने वाले प्राणीको मरणसे बचा देना अभयदान कहा गया है और इस विषयको स्पष्ट समझानेके लिये चोरका दृष्टान्त दिया है। इस दृष्टान्तमें रानी ने अपनी ओरसे चोरको भय देने का त्याग नहीं बल्कि शूली या फांसीके द्वारा होने वाले मरणरूपी महाभयसे उसे बचाया है और इस कार्याको यहां अभयदान कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीका भय दूर करना भी अभयदान है अपनी ओरसे भय न देना ही नहीं अत: दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीको भयसे मुक्त करने में जो. एकान्त पाप बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं।
(बोल ३रा समाप्त) (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२१ पर सुयगडांग सूत्रको गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ अठे कह्यो पोताना कम खपावा तथा आर्याक्षेत्रना मनुष्यने तारिवा भगवान् धर्म कहे इम कयो पिण इम न करो जे जीव बंचावाने अर्थे धर्म कहे, इण न्याय असंयति जीवांरो जीवगों वाच्छ्या धर्म नहीं।
इनके कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर स्वामी आर्यक्षेत्रके मनुष्य को तारनेके लिए और अपने कर्मोका क्षय करनेके लिये धर्मोपदेश करते थे परन्तु हिंसक के हाथसे मारे जाने वाले प्राणियों की प्राणरक्षा करनेके लिये नहीं अत: मरते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना साधुका कर्त्तव्य नहीं है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
सुयगडांग सूत्रकी गाथाओंको लिख कर इसका समाधान दिया जाता है। वे गाथायें ये हैं:
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