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अनुकम्पाधिकारः ।
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लिये धर्मोपदेश देना तो ठीक है परन्तु उसके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राणरक्षा के लिये धर्मोपदेश देना उचित नहीं है क्योंकि मरते जीवकी रक्षाके लिये उपदेश देना एकान्त पाप है" अतः जीवरक्षामें धर्म होना स्पष्ट सिद्ध होता है तथापि हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राणरक्षाके उद्देश्यसे धर्मोपदेश करनेमें जो एकान्त पाप बतलाते हैं उन्हें मिथ्यावादी और उत्सूत्र प्ररूपगा करनेवाला समझना चाहिये ।
[बोल २ रा समाप्त (प्रेरक)
सुयगडांग सूत्र श्रु० १ अध्ययन ६ के मूलगाथामें “दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाण" यह वाक्य आया है इसका कई एक यह अर्थ करते हैं कि "अपनी ओरसे किसी प्राणी को भय न देना अभयदान है परन्तु दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीको भयसे मुक्त करना अभयदान नहीं हैं" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
किसी प्राणीको अपनी ओरसे भय न देना, और दूसरेसे भय पाते हुए जीवको भयसे मुक्त करना, ये दोनों ही अभयदान हैं परन्तु अपनी ओरसे किसीको भय न देना ही नहीं अत: दूसरेसे भय पाते हुए जीवको भयसे मुक्त करनेको अभयदान न मानना अज्ञानियोंका कार्या है। इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने, दूसरेसे भय पाते हुएको भय से मुक्त करना अभयदान बतलाया है वह टीका यह है:
स्वपरानुग्रहार्थ मर्थिनेदीयत इति दान मनेकधा तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादभयदानं श्रेष्ठम् । तदुक्तम् "दीयते म्रियमाणस्य कोटिं जीवितमेव वा धन कोटिं न गृह्णाति सर्वो जीवितुमिच्छति"
__ गोपालाङ्गनादीनां दृष्टान्तद्वारेणाथों बुद्धौ सुखेनारोहतीत्यतोऽभयदान प्रधान्य ख्यापनार्थ कथानक मिदम्-वसन्तपुरे नगरे अरिदमनो राजा, सच कदाचित् चतुर्वधू समेतो वातायनस्थः क्रीडायमानस्तिष्ठति तेन कदाचिच्चोरो रक्त करवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः । दृष्ट वाच ताभिः पृष्ठम् किमनेना कारीति । तासामेके न रामपुरुषेणा वेदितम्, यथा परद्रव्यापहारेण राजविरुद्ध मिति तत एकया राजा विज्ञप्तः यथा यो भवता मम प्राग् वरः प्रतिपन्नः सोऽधुना दीयताम् यथाहमस्योपकरोमि किश्चित् राज्ञापि प्रतिपन्नम् । ततस्तया स्नानादिपुरःसरमलंकारेणालंकृतो दीनार सहस्र व्ययेन पञ्चविधान् शब्दादीनविषयानेक महः प्रापितः । पुनद्वितीययाऽपि तथैव द्वितीय महो दीनार शत सहस्र व्ययेन
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