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सद्धर्ममण्डनम् ।
जीवकी प्राण रक्षा उसके असंयम सेवनका अनुमोदन करनेके लिये नहीं करता। साधु यह नहीं चाहता कि "यह असंयति जीवित रह कर असंयमका सेवन करे, या असंयम सेवन करना अच्छा है। साधु असंयम सेवनको बुरा जानता है इस लिये वह असंयम सेवनके लिये असंयतिकी रक्षा नहीं करता किन्तु असंयतिको आत रौद्र ध्यान और मरण भयसे मुक्त करनेके लिये उसकी प्राणरक्षा करता है अत: असंयतिकी प्राणरक्षा करनेके लिये धमों पदेश देनेसे साधुको असंयमका अनुमोदन बतलाना मिथ्या है। यदि इस तरह असंयमका अनुमोदन लगे तो फिर हिंसककी हिंसा छुड़ाने के लिये अहिंसाका उपदेश भी न देना चाहिये । क्योंकि धमों पदेश सुन कर हिंसक यदि असंयतिको न मारे तो उसकी प्राण रक्षा होगी और वह जीवित रह कर असंयमका सेवन भी कर सकता है। फिर रक्षामें पाप कहने वाले, हिंसककी हिंसा छुड़ानेके लिये अहिंसाका उपदेश क्यों देते हैं ?
यदि कहो कि हम असंयतिकी प्राणरक्षा करनेके लिये हिंसकको अहिंसाका उपदेश नहीं देते किन्तु उसे हिंसाके पापसे मुक्त करनेके लिये देते हैं इसलिये हमें असंयतिकी प्राणरक्षा या असंयम सेवनका अनुमोदन नहीं लगता तो उसी तरह समझो कि हम भी असंयमका सेवन करानेके लिये असंयतिकी प्राणरक्षा नहीं करते किन्तु उसका आर्त रौद्र ध्यान मिटा कर मरण दुःखसे उसे मुक्त करनेके लिये करते हैं अत: हमें असंयम सेवन का अनुमोदन नहीं लग सकता । अत: हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राण रक्षा करनेमें असंयम सेवनका नाम लेकर एकान्त पाप कहने वाले मिथ्यावादी हैं ।
( बोल ४) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२१ पर लिखते हैं कि
"जिम कोई कसाई पांच सौ पञ्चन्द्रिय नित्य हणे छ । ते कसाईने कोई मारतो हुए तो तिणने साधु उपदेश देवे तो तिणने तारिवाने अर्थे पिण कसाईने जीवतो राखणे उपदेश न देवे, ए कसाई जीवतो रहे तो आच्छो इम कसाईनो जीवणो वांछनो नहीं । कोई पञ्चेन्द्रिय हणे केई एकेन्द्रियादिक हणे छै ते मांटे असंयति जीव ते हिंसक छै हिंसकनो जीवणों वान्छयां धर्म किम हुवे" इनके कहनेका आशय यह है कि कोई पञ्चेन्द्रिय जीव को मारता है और कोई एकेन्द्रिय जीवको मारता है इस लिये साधुके सिवाय सभी जीव कसाईके समान हिंसक हैं उनकी प्राण रक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना धर्म नहीं
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