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सद्धर्ममण्डनम् ।
यदि कोई कहे कि “प्रश्न व्याकरण सूत्रके ऊपर लिखे पाठ में 'रक्षण' पदका जीवों को न मारना अर्थ है बचाना अर्थ नहीं है" तो वह मिथ्यावादी है रक्षण पदका कोष, व्याकरण तथा व्यवहार से बचाना अर्थ ही प्रसिद्ध है और जीतमलजीने भी यह स्वीकार किया है । जैसे ० पृ० ११९ पर उन्होंने लिखा है " ( १ ) एक तो जीव हणे ( २ ) एक न हणे (३) एक जीव छुडावे ए तीनू न्यारा न्यारा छै" यह लिख कर जीवको न मारना और जीवकी रक्षा करना इनको भिन्न भिन्न जीतमलजीने बतलाया है इसलिये जीव न मारने को रक्षा मानना और जीव छुड़ानेको रक्षा न मानना मिथ्या है ।
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हिंसक हाथसे मारे जाने वाले जीवकी रक्षा करनेके लिये उपदेश देना सावध सत्यकी तरह एकान्त पाप नहीं है। सावध सत्यसे जीवको दुःख होता है जैसे काणको का अन्धेको अन्धा कहना सत्य तो है परन्तु इससे काण और अन्ध मनुष्यके दिल दुःख होता है इसलिये शास्त्रमें सावद्य सत्यको एकान्त पाप कहा है लेकिन हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश देनेसे न तो हिंसक को दुःख होता है और न मारे जाने वाले जीवको ही दुःख होता है वल्कि हिंसक जीव, हिंसाके पापसे वचता है और मारे जानेवालेका आर्त रौद्र ध्यान छूटता है फिर इसमें पाप किस बाता हुआ ? यह बुद्धिमान, दयालु मनुष्य स्वयं समझ सकते हैं ।
प्रश्न व्याकरण सूत्रके पूर्वोक्त मूलपाठानुसार हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना बहुत ही प्रशस्त कार्य्य है इसे पाप बताना शास्त्र द्रोहियोंका कार्य है । सावध और निरवद्यके भेदसे सत्यका दो भेद होना, स्वयं शास्त्रकारने ही बतलाया है परन्तु रक्षाको सावद्य और निरवद्य कहीं नहीं कहा है अतः जो लोग रक्षाको सावद्य कहते हैं वे मिथ्यावादी हैं ।
जीव रक्षा रूप धर्मको एकान्त पाप सिद्ध करनेके लिये जीतमलजीने जो दूसरा दृष्टान्त दिया है कि “साधु चोरीके पापसे चोरको मुक्त करनेके लिये धर्मोपदेश देता है। परन्तु धनी धनकी रक्षा करनेके लिये नहीं देता उसी तरह हिंसकको हिंसाके पापसे मुक्त करनेके लिये न मारने का उपदेश देता है परन्तु मरते जीवकी रक्षाके लिये नहीं देता” यह दृष्टान्त भी असंगत है क्योंकि प्रश्न व्याकरण सूत्रमें जीवरक्षा रूप दयाके लिये जैनागम का कथन होना बतला कर जीवरक्षा रूप धर्मको जैनागमका प्रधान उद्देश्य कहा है इसलिये साधु जीव रक्षा के लिये धर्मोपदेश करते हैं परन्तु धनीके धनकी रक्षा के लिये नहीं क्योंकि उक्त सूत्रमें परायेद्रव्यके हरणरूप पापसे निवृत्तिरूप दया के लिये जैनागमका कथन होना बतलाया है धनीके धनकी रक्षारूप दयाके लिये नहीं इसलिये साधु, चोरको
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