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अथ अनुकम्पाधिकारः
बहुत लोग अहिंसा धर्मका रहस्य नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी अनुकम्पाधिकार की व्याख्या भी अजीब तरहसे करते हैं। उनके मतसे जो मनुष्य जीवों को मारता है वह हिंसा करता और एकान्त पापी होता है। जो नहीं मारता वह अहिंसा धर्मका पालन करता है वह धार्मिक है । लेकिन जो हिंसकको उपदेश देकर उसे हिंसा कम से रोकता है और प्राणीकी प्राण रक्षा करता है वह भी अधर्म करता है। जैसे भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२० पर लिखते हैं, "श्री तीर्थ कर देव विण पोताना कम खपावा तथा अनेराने तारिवाने अणे उपदेश देवे इम कयो छै पिण जीव बंचावा उपदेश देवे इम कह्यो नहीं" इत्यादि । अनुकम्पाकी ढालमें भीष गजीने इससे भी अधिक बढ़ कर कहा है "कईक अज्ञानी इम कहे छः कायारा काजे हो देवां धर्म उपदेश। एकन जीवने समझावियां मिट जावे हो घणां जीवांरा क्लेश । छ: कायारे घरे शान्ति हुवे एहवा भाषे हो अन्य तीर्थी धर्म । त्यांभेद न पायो जिन धर्मरो ते तो भूल्या हो उदय आया अशुभ कर्म । मत मार कहे उणरो रागीरे तीजे करणे हिंसा लागी रे"
____ "अर्थात् "कुछ लोग कहते हैं कि वे छः कायके जीवोंके घरमें शान्ति होनेके लिये धर्मका उपदेश देते हैं, क्योंकि एक जीवको समझा देनेसे बहुत जीवोंका क्लेश मिट जाता है। लेकिन छ: कायके जीवोंके घरों में शान्ति होनेके लिये उपझेश देना, अन्य तीर्थी लोगों का धर्म बतलाता है जैन धर्म नहीं बतलाता इस लिये छ: कायके जीवों के घरोंमें शान्ति होनेके लिये उपदेश देने वाले जैन धर्मके रहस्यको नहीं जानते वे मूले हुए हैं और उनको अशुभ कर्मका उदय हुआ है।
जो मनुष्य हिंसकके हाथसे मतमार कह कर जीवकी रक्षा करता है वह तीसरे करणसे हिंसाका पाप करता है।"
भीषणजीने और भी कहा है "मति मारणरो को नहीं तेतो सावज जाणी वायरे" लेकिन 'मतमार' ऐसा कहके प्राण रक्षा करना कभी सावद्य नहीं है। कोई भी जैन धर्मके तत्वको जानने वाला इसका अनुमोदन नहीं कर सकता। ऐसे ही अनर्गल उपदेश देकर लोगोंने जैन जगतमें भ्रम फैलाया है। जहां उपदेश द्वारा मरते प्राणीकी रक्षा करना एकान्त पाप है, वहां और किसी उपायसे वैसा करना तो और भी गह्य होगा अर्थात् उसके तो एकान्त पाप होनेमें कोई सन्देह ही नहीं है।
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