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दधिकारः ।
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यक और पोषामें बैठे हुए श्रावकके मन वचन और कायके व्यापारको सुप्रणिधान और उपकरण व्यापारको दुष्प्रणिधान बताना एकान्त मिथ्या समझना चाहिये ।
ठाणाङ्ग सूत्र उक्त मूल पाठमें मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार, संयति मनुष्योंके सुप्रणिधान कहे गये हैं वहां संयति पदसे जीतमलजीने केवल साधुओं काही ग्रहण होना माना है देश संयति श्रावकों का नहीं । ऐसी दशामें इनके मतानुसार सामायक और पोषामें वैठे हुए श्रावकोंके मन वचन और कायके व्यापार भी सुप्रणिधान नहीं कायम हो सकते क्योंकि मन वचन और कायके व्यापार भी उक्त पाठमें • संयतियोंके ही सुप्रणिधान कहे गये हैं दूसरोंके नहीं। यदि उक्त मूल पाठमें "संयत" पदसे देश संयति श्रावक का भी ग्रहण मान कर उसके भी मन वचन और कायके व्यापार को सुप्रणिधान मानते हो तो फिर उसके उपकरणके व्यापार को भी सुप्रणिधान मानना ही पड़ेगा अतः ठाणाङ्ग उक्त मूल पाठ का नाम लेकर सामायक और पोषामें बैठे एक मन वचन और कायके व्यापारको सुप्रणिधान और उसके उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान मानना एकान्त मिथ्या है ।
( बोल ४० वां )
इति दानाधिकारः समाप्तः ।
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