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दानाधिकारः।
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संयमधारी जीवका ही होता है क्योंकि सुप्रणिवान चारित्रका परिणाम स्वरूप है। इसी तरह असंयमके लिये जो मन वनन काय और उपकरणका प्रयोग किया जाता है वह दुष्प्रणिधान कहलाता है यह पञ्चेन्द्रियसे लेकर वैमानिक देव पर्य्यन्तके जीवोंको होता है। यह ऊपर लिखे मूल पाठका टीकानुसार अर्थ है।
___ यहां मन, वचन, काय और उपकरणका सुप्रणिधान संयमधारी जीवोंका होना कहा है इस लिये देशसे संयम पालन करने वाले श्रावकोंका देश संयम पालन के लिये मन, वचन, काय और उपकरणोंका जो प्रयोग होता है वह भी सुपणिधान ही है दुष्प्रणिधान नहीं अत: इस पाठका नाम लेकर श्रावकोंके मन, वचन, काय और उपकरणोंके सभी व्यापारोंको दुष्प्रणिधान बतलाना मिथ्या है। उक्त मूल पाठ और उसकी टीकामें जो संयत पुरुषोंका सुप्रणिधान होना कहा है वहां संयत पदसे देश संयत (श्रावक) और सर्व संयत ( साधु ) दोनोंका ही ग्रहण है केवल सर्व संयत का ही ग्रहण नहीं अतः श्रावक, अपने देश संयमका पालन करने के लिये जो मनसे धर्मध्यान, वचनसे अरिहंत सिद्ध और साधुओं का गुणानुवाद, शरीरसे साधुओं का मान सन्मान, सेवा सुश्रूषा और उपकरणोंसे जीव रक्षा आदि शुभ व्यापार करता है यह सब व्यापार सुप्रणिधान ही है दुष्प्रणिधान नहीं।
जो लोग उक्त चारों ही सुप्रणिधान एक मात्र साधुओंका ही होना मान कर . श्रावकों के उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान मानते हैं उनसे कहना चाहिये कि श्रावक जो मनसे धर्म ध्यान और वचनसे अरिहन्त सिद्ध और साधुओंका गुणानुवाद और कायसे साधुको दान सम्मान सेवा सुश्रूषा आदि व्यापार करता है उसे भी आप दुष्प्रणिधान ही क्यों नहीं मानते ? यदि कहो कि ये सब व्यापार संयम पालनके लिये किये जाते हैं इस लिये ये दुष्प्रणिधान नहीं हैं तो उसी तरह संयम पालनके लिये जो श्रावक उपकरणका व्यापार करते हैं वह भी दुष्प्रणिधान नहीं किन्तु सुप्रणिधान ही है यदि उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान कहो तो उसके पूर्वोक्त मन, वचन और कायके व्यापारों को भी दुष्पणिधान ही कहना होगा परन्तु जैसे श्रावकका मन बचन और कायके पूर्वोक्त व्यापार दुष्प्रणिधान नहीं हैं उसी तरह संयम पालनार्थ उपकरणका व्यापार भी दुष्प्रणिधान नहीं हैं अत: ठाणाङ्ग सूत्रके इस प्राठका नाम लेकर श्रावकके पूंजनी आदि धमों पकरणोंके व्यापारको एकान्त पापमें स्थापन करना सूत्रार्थ न जाननेका फल समझना चाहिये।
यदि कोई कहे कि 'श्रावकोंके मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार यदि सुप्रणिधान हैं तो इस पाठमें मनुष्य संयतिओंके ही एक चतुर्विध सुप्रणिधान क्यों कहे
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