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दानाधिकारः।
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जो लोग श्रावकोंके पूंजनी आदि धर्मोपकरणोंको शरीर रक्षाका साधन बतलाते हैं उनसे कहना चाहिये कि प्रमादी साधुके ओघा पात्रादि धर्मोपकरणोंको भी तुम उनके शरीर रक्षाका साधन क्यों नहीं मानते ? यदि वे प्रमादी साधुके ओघा पात्रादि धर्मोपकरणोंको भी उनके शरीर रक्षाका साधन मानें तो फिर उनके मतमें प्रमादी साधुके मोषा पात्रादि उपकरण भी एकान्त पाप तथा अव्रतमें ही ठहरते हैं क्योंकि भगवतीजीके मूल पाठमें प्रमादी साधुको आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी कहा है तथा प्रमादी साधु की आत्मा अधिकरण कही गई है इस लिये प्रमादी साधुके ओघा पात्रादिक भी तुम्हारे मतसे एकान्त पापमें ही ठहरते हैं। यदि कहो कि प्रमादी साधु, ओघा पात्रादि उपकरण प्रमाद सेवन और अपने शरीर रक्षाके लिये नहीं किन्तु जीव रक्षा आदि धर्मको पालन करनेके लिये रखते हैं अतः उनके धर्मोपकरण एकान्त पाप में नहीं हैं तो उसी तरह यह भी समझो कि श्रावक, पौषध व्रतमें होने वाले अतिचारकी निवृत्ति और जीव रक्षाके लिये पूजनी आदि धर्मोपकरण रखते हैं अपने दोषोंकी वृद्धि तथा और किसी स्वार्थसे नहीं रखते अतः श्रावकके पूजनी आदि धमों पकरणोंको एकान्त पाप और अब्रतमें कायम करना अज्ञान है।
यह बात दूसरी है कि साधु यदि धर्मोपकरणों पर मूर्छा ममता रक्खे और अयत्न पूर्वक उनका व्यवहार करे तो उसको परिग्रह तथा आरम्भ दोष लगता है तथा श्रावक धर्मोपकरणोंपर मूछी ममता रक्खे और अयत्न पूर्वक उनका व्यवहार करे तो उसको भो परिग्रह और आरम्भ होता है परन्तु यत्न पूर्वक उपकरणोंका व्यवहार करने
और उनमें ममता मूर्छा नहीं रखने पर वे उपकरण धर्मके सहायक हैं आरम्भ तथा परिग्रहके हेतु नहीं हैं अतः उन्हें पापमें बताना मिथ्या है।
(बोल ३९)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ११७ के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ४ उद्देशा १ के मूल पाठका उदाहरण देकर लिखते हैं “अथ इहां चार व्यापार कह्या मन, वचन, काया, उपकरण, ये चारू व्यापार सन्निपन्चेन्द्रिय रे कहा ये चारू मुंडा व्यापार पिण १६ दण्डक सन्नीपञ्चेन्द्रिय रे कह्या अने ए चारू भला व्यापार तो एक संयति मनुष्यने इस कया पिग और ने न कया तो जोवोनी साधुरा उपकरण तो भला व्यापार में घाल्या अने श्रावकरा पुंजनी आदि उपकरण भला व्यापारमें न घाल्या ते मोटे पूजनी आदिक श्रावक राखे ते सावध योग ? (भ्र० पृ० ११७ )
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