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सद्धममण्डनम् ।
"अने साधर्मी पिण साधु साध्वियांने इज कह्या छै । किणहीक देशे लोकरूढ़ भाषा श्रावकांने साधर्मी कही बोलावियेछै ते रूढ़ भाषाए नाम है" ( ० पृ० २६१ ) यह इनका कथन एकान्त मिथ्या है। 'सहधर्मी' शब्द समान धर्मवालोंका वाचक है इस लिये साधुका सहधर्मी साधु और श्रावकका सहधर्मी श्रावक है । तथा एक मान्यता रूप धर्मको लेकर साधु भी श्रावकका सहधर्मी है । व्यवहार सूत्रके दूसरे उद्दे शेके भाष्यमें प्रवचनके द्वारा श्रावकका सहधर्मी साधु और श्रावक दोनों कहे गाथा यह है :
गये हैं । वह भाष्य की
"पवयण संघ गयरो लिङ्ग स्यहरण मुहपत्ती" ( टीका )
'पवयण' त्ति प्रवचनतः सहधर्मिकः संघ मध्ये एकतरः श्रमणः श्रमणी श्रावकः श्राविका चेति । लिङ्गतु लङ्गितः साधर्मिकः रजोहरण मुह पोत्तिका युक्त: "
अर्थात् साधु साध्वी श्रावक और श्राविका इनमेंसे कोई भी प्रवचन के द्वारा साधर्मिक होता है । और रजोहरण तथा भुख वस्त्रिकासे युक्त लिङ्गके द्वारा साधर्मिक है । यहां भाष्य और उसकी टीका में प्रवचन के द्वारा श्रावकको भी साधर्मिक कहा है तथा इस भाष्य १५ व गाथाकी टीकामें लिङ्ग और प्रवचनके द्वारा साधर्मिकोंकी एक चौभंगी कही गई है उसके दूसरे भंगमें श्रावक कहा गया है वह टीका यह है :
“तथा प्रवचनतः साधर्मिको न पुनः लिङ्ग लिङ्गतः एष द्वितीयः केते एवं भूता इत्याह-दश भवंति सशिखाकाः अमुण्डितशिरस्का: श्रावका इति गम्यते । श्रावकाहि दर्शन व्रतादि प्रतिमा भेदेन एकादश विधाः भवति तत्र दश सकेशाः एकादश प्रतिमा प्रतिपन्नस्तु लुंचित शिराः श्रमणभूतो भवति तत स्तद्व्यवच्छेदाय सशिखाक ग्रहणम् एते दश सशिखाकाः श्रावकाः प्रवचनतः साधर्मिका भवंति तेषां संघान्तर्भूतत्वात् नतु लिङ्ग तो रजोहरणादि लिङ्ग रहितत्वात्"
अर्थ :
जो प्रवचन के द्वारा साधर्मिक है और लिङ्गके द्वारा नहीं है वह दूसरा भंगका स्वामी है । वह कौन है ? यह बतलाया जाता है
जिनका शिर मुण्डित नहीं है, जो शिखाधारी हैं वे दशप्रकारके श्रावक दूसरे भंग के स्वामी हैं । दर्शन, व्रतादि और प्रतिमाके भेदसे ११ प्रकारके श्रावक होते हैं । उनमें दश शिखाधारी और एग्यारहवां लुब्चित शिर वाला साधुके सदृश होता है उसकी व्यावृत्तिके लिये दूसरे भंगमें शिखाधारी श्रावक कहा गया है। ये दश शिखाधारी श्रावक प्रवचनसे
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