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दानाधिकारः।
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(प्ररूपक)
ठाणांग सूत्रके दशवें ठाणामें प्रवचनको वत्सलतासे भविष्यमें कल्याण होना बतलाया है । टीकाकारने प्रवचन वत्सलताका अर्थ यह किया है
"प्रकृष्ट प्रशस्त प्रगतं वा वचनम् आगमः प्रवचनं द्वादशाङ्गतदाधारोवा संघः तस्य वत्सलता हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचनवत्सलता तया"
अर्थात् सबसे उत्तम आगमको प्रवचन कहने हैं वह प्रवचन, द्वादशाङ्ग है अथवा उस द्वादशाङ्गके आधारभूत साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंको प्रवचन कहते हैं उसके विन्न आदिको हटा कर हित संपादन करना “प्रवचन वत्सलता" है इससे जीव को भविष्य में कल्याण प्राप्त होता है।
यहां साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंका इकट्ठा ही हित करना भावी कल्याणका कारण कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु साध्वी की तरह श्रावक
और श्राविकाओंका हित करना भी भावी कल्याणका कारण है। इससे चतुर्विध संघकी रक्षा होती है जो कि शासन रक्षार्थ परमावश्यक है अतएव उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्ययनमें अपने सहधर्मी भाईका आहार पानीके द्वारा उचित सत्कार करना सम्यक्त्व का आचार कहा गया है वह पाठ यह है :
"निस्संकिय निक्कंखिय निवित्तगिच्छं अमूढदिट्ठीय । लव वह थिरी करणं वच्छलप्पभावणेऽटते"
(उत्तराध्यन अ० २८) अर्थः
(१) सर्वज्ञभाषित शास्त्रमें देशसे या सर्वसे शंका न करना (२) सर्वज्ञभाषित शास्त्रसे भिन्न शास्त्रकी इच्छा न करना । (३) साधुओंकी निन्दा और तपके फलमें सन्देह न करना (४) कुतीर्थी को धनवान देख कर उसके धर्मको श्रेष्ट और अपने धर्मको बुरा न मानना । (५) ज्ञान दर्शन सम्पन्न पुरुषकी प्रशंसा करना । (६) धर्माचरण करनेमें कष्ट पाते हुए पुरुष को धर्ममें स्थिर करना । (७) अपने सहधर्मी भाईको भात पानी आदिसे उचित सत्कार करना (८) अपने धर्मकी उन्नतिके लिये सदा चेष्टा करना । ये आठ समकितके आचार हैं।
___ इस उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथामें सहधर्मी भाईको भात पानी आदिके द्वारा उचित सत्कार करना सम्यक्त्व का आचार पालन करना कहा है इस लिये श्रावककी भात पानीके द्वारा सेवा करना एकान्त पाप नहीं किन्तु समकितका आचार पालन करना है इसे एकान्त पाप बताना मूल्का कार्य है। कोई कहते हैं 'सहधर्मी' नाम साधुनहै श्रावकका नहीं इस लिये साधुको भात पानी आदिके द्वारा उचित सत्कार करना है 'सहधर्मि वत्सलता' है श्रावकका सत्कार करना नहीं जैसे कि जीतमलजीने लिखा है:
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