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सद्धंममण्डनम् ।
फल विज्ञान, विज्ञानका फल प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानका फल संयम, संयमका फल आस्रवोंका निरोध, आस्रव निरोधका फल तप, तपका फल कर्मो का क्षय, कर्म क्षयका फल क्रियाका अभाव और क्रियाके अभावका फल मोक्षकी प्राप्ति है।
यह इस पाठका अर्थ है।
इस पाठमें जैसे तथारूपके श्रमण की सेवा करनेका फल शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्षकी प्राप्ति तक कहा है उसी तरह माहन (श्रावक ) की सेवाका फल भी कहा है अतः श्रावककी सेवा भी शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्ष पर्यन्त फल देने वाली है यदि कोई कहे कि " इस पाठमें श्रमण और माहनकी सेवाका फल कहा गया है श्रावककी सेवा का फल नहीं कहा है" तो उसे कहना चाहिये कि " श्रमण" नाम साधुका और "माहन” नाम श्रावकका है इसलिये इस पाठमें साधु और श्रावक दोनोंकी सेवाका फल कहा है। इस पाठकी टीकामें टीकाकारने "माहन" शब्दका अर्थ श्रावक किया है वह टीका यह है-" श्रमणः साधुर्माहनः श्रावकः " अर्थात् “ श्रमण." नाम साधुका और “ माहन " नाम श्रावकका है अतः माहन शब्दका श्रावक अर्थ होनेमें कोई संशय नहीं है। इस टीकाके सिवाय दूसरे स्थलकी टीकाओंमें भी "माहन" शब्द. का श्रावक अर्थ किया है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ में मूल पाठ आया है कि "तहारूवस्स समणस्स माहणस्सवा अन्तिए एगमपि आरिय धम्मियं सुवयणं सोचा"
इस पाठमें आये हुए माहन शब्दका टीकाकारने श्रावक अर्थ ही किया है वह टीका यह है
"माहने त्येव मादिशति स्थूल प्राणातिपातादि निवृत्त त्वाद्यः स माहनः ।
अर्थात् जो स्वयं स्थूल प्राणातिपात आदिसे निवृत्त होकर दूसरेको न मारनेका उपदेश देता है वह " माहन" कहलाता है। वह पुरुष श्रावक है क्योंकि जो स्थूल प्राणातिपातसे निवृत्त है वही श्रावक है। उस श्रावककी सेवा करनेका फल शास्त्र श्रवण से लेकर मोक्ष पर्यन्त कहा है इस लिए श्रावकको अन्नादि द्वारा सेवा करनेमें एकान्त पाप बतलाना उत्सूत्र वादियोंका कार्य्य है। कई जीवोंने श्रावकके धर्मोपदेशसे कल्याण का लाभ किया है। जितशत्रु राजाने सुवुद्धि नामक श्रावकके धर्मोपदेशसे सम्यक्त्व और बारह व्रतका ला लाभ किया था, उस श्रावकको कुपात्र कहना और उसकी सेवा भक्तिको एकान्त पापमें ठहराना कितना अन्याय है यह सभी बुद्धिमान समझ सकते हैं।
बोल ३२ वां समाप्त
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