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सद्धेममण्डनम्।
मूलाठमें कहा है अतः अपने अतिचारकी निवृत्ति और जीव रक्षाके लिये श्रावक पूजनी आदि धर्मापकरण रखते हैं किसी दूसरे आरम्भादिक कार्यके लिये नहीं।
उपासक दशांग सूत्रका वह मूलपाठ यह है:
"तयाणं तरं चणं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा-अप्पडिलैहिय दुष्पडिलेहिय सिज्जा संत्थारे, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय सिज्जा संस्थारे, अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय उच्चारपासवण भूमि पोसहोववासस्स समं अणणुपालना"
(उपासक दशांग सूत्र) अर्थः-- ____ श्रमणोपासकको पौषधोपवास ब्रतके पांच अतिचार जानने चाहिये और उनका आचरण न करना चाहिये वे अतिचार ये हैं:-(१) शय्या संथाराका प्रतिलेखन न करना, या ठीक ठीक प्रतिलेखन न करना (२) शय्या संथाराको पूजनी आदिसे न पूजना, अथवा अच्छी तरहसे न पूजना । (३) उच्चार पासवण भूमिका प्रतिलेखन नहीं करना, अथवा अच्छी तरहसे प्रतिलेखन नहीं करना । (४) उच्चार पासवण भूमिको पूजनी आदिसे न पूजना, अथवा अच्छी तरहसे न पूजना । (५) पोषधोपवास ब्रतका विधिवत् पालन नहीं करना।
__ ये पांच पौषधोपवास व्रतके अतिचार हैं इन अतिचारों को वर्जित करना आवश्यक है अतः श्रावक, पौषधोपवासके समय पूजने के लिये पूजनी आदि धर्मापकरण रखते हैं। यदि पौषधोपवासमें श्रावक पूजनी न रक्खें तो शय्या संथारा और उच्चार पासवण भूमिका पूजन नहीं हो सकता और उनका पूजन हुए विना श्रावकके व्रतमें अतिचार आता है उसकी निवृत्ति के लिये श्रावक पूजनी आदि धर्मापकरण रखते हैं अतः श्रावकके पूजनी आदि धपिकरगोंको एकान्त पापमें स्थापन करना अज्ञानियों का कार्य है। ११ वी प्रतिमाधारी श्रावक, जो मुख वस्त्रिका, ओघा पत्रादि धर्मापकरण रखते हैं वह भी अपने ब्रतका पालन करनेके लिये रखते हैं किसी दूसरे स्वार्थसे नहीं अत: उनका ओघा पात्रादि धर्मापकरण रखना धर्मका उपकारक और उनके ब्रतका अङ्गभूत है उसे एकान्त पापमें कायम करना अज्ञानका परिणाम है।
दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रके मूलपाठमें एग्यारहवों पडिमाधारी श्रावकको सभी धर्मोपकरणोंके रखनेका विधान किया है वह पाठ यह है:
"लुचसिरए गहितायार भंडगनेपत्था जारिसे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे तं धम्म काएग फासे माणे पाले माणे” अर्थात् एग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकको शिरका लोच
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