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संघममण्डनम् ।
( टीका )
"अहासुतं ' त्ति सूत्रानति क्रमेण यथाकल्पम् प्रतिमाचारानतिक्रमेग यथामार्ग क्षयोपशमभावानतिक्रमेण यथा तत्त्वं दर्शन प्रतिमेति शब्दस्यान्वर्थानतिक्रमेण "
अर्थ:
इसके अनन्तर आनन्द श्रावक, उपासक प्रतिमाको स्वीकार करके विचरने लगा । उसने पहली उपासक प्रतिमाको सूत्रानुसार कल्पानुसार क्षयोपशमभावानुसार और दर्शन प्रतिमा शब्दार्थ के अनुसार ग्रहण किया । पश्चात् उपयोगके साथ बार बार प्रतिपरिशोधन करके उनकी अवधि पूरी होने पर वह थोड़ी देर तक ठहर जाता था। पारणेके दिन अपने अनुष्ठानका कीर्तन करता हुआ वह यह कहता था कि "इस प्रतिमामें अमुक कार्य किया जाता है इसका मैंने सूत्रानुसार और कल्पानुसार अनुष्ठान किया है" इस प्रकार आनन्दने तीर्थंकरकी आज्ञानुसार पहली प्रतिमाकी आराधना की शेष दश प्रतिमाओं का आराधन भी उसने इसी तरह किये थे ।
इस मूलपाठ, आनन्द श्रावकसे सूत्रानुसार प्रतिमाओंका आचार पालन किया जाना कहा है इससे इन प्रतिमाओंका आगमोक्त होना स्पष्ट सिद्ध होता है यदि ये प्रतिमायें श्रावकों के कपोल कल्पित होतीं तो सूत्रानुसार इनका पालन किया जाना उक्त मूल पाठमें कैसे कहा जाता ? अतः ११ प्रतिमाओंको श्रावकोंके कपोल कल्पित बतला कर ११ वीं प्रतिमाधारी श्रावक को सूझता आहार देनेसे एकान्त पाप कहना उत्सूत्र वादियों काका है।
[बोल ३५ वां समाप्त ]
( प्रेरक )
११ वीं प्रतिमाधारी श्रावकको दशविध-यति-धर्म पालन करने और साधुकी तरह भाण्डपकरण रखने की कहां आज्ञा दी गई है यह बतलाईए ?
(प्ररूपक )
११ वीं प्रतिमाधारी श्रावकको दशविध यति धर्मके अनुष्ठान करने और साधुको तरह भाण्डोपकरण रखने की दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें आज्ञा दी गई है वह पाठ यह है :"अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा सव्वधम्म रुइयावि भवइ उभते से परिण्णाते भवति । सेणं खुरमुण्डएवा लुत्त सिरएवा गहित्ताधार भंडग नेपत्था जे इमे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे तं
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