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सद्धर्ममण्डनम् ।
तरह साधुने अपना और अपने सांभोगिक साधुको खानेके लिये भिक्षा गृहस्थसे ली है दूसरे किसीको देनेके लिये नहीं इसलिये वह अपना भिक्षान्न किसी गृहस्थ या अन्य तीर्थीको नहीं देता परन्तु गृहस्थ या अन्य तीर्थीको अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है अतः गृहस्थ या अन्य तीर्थीको अनुकम्पा दान देने में एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिए।
(बोल ३० वां समाप्त) (प्रेरक) ___ साधुसे इतरको दान देनेसे पुण्यबन्ध होना यदि कहीं मूल पाठमें लिखा हो तो उसे बतलाइए ?
(प्ररूपक) - साधुसे इतरको अनुकम्पा दान देना पुण्यका कार्य है यह दश वैकालिक सूत्रमें लिखा है वह गाथा यह है:
" असणं पाणगंवापि खाइमं साइमं तहा जं जाणिज्ज सुणिज्जावा पुणट्ठा पगड इमं तं भवे भत्तपाणं तु संजयाणं अकप्पिय दितियं पडियाइक्खे नमे कप्पइ तारिसं"
(दशवैकालिक सूत्र अ० ५ उ० १ गाथा ४९-५०) । अथ:
भिक्षाचरीके निमत्त गया हुआ साधु, यदि यह जाने या सुने कि यह अशन पान खाद्य और स्वाद्य पुण्यार्थ बनाया गया है तो उसे अपने लिये अकल्पनीय समझे। वह अन्न यदि कोई देने लगे तो साधु न लेवे और पुण्यार्थ बनाया हुआ अन्न मुसको नहीं कल्पता यह कह देवे।
____ इन गाथाओंमें साधुसे इतरको देने के लिये बनाये हुए अन्नको “ पुण्यार्थ" कहा गया है। यदि साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप होता तो इस पाठमें वह अन्न " पापार्थ प्रकृत" कहा जाता अतः साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानका परिणाम है । जिसके घरमें साधुसे इतरको देनेके लिये अन्न बनाया जाता है टीकाकारने उसे शिष्ट कहा है । वह टीका यह है "पुण्यार्थ प्रकन परित्यागे शिष्ट कुलेषु वस्तु तो मिक्षाया अग्रहणमेव शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाक प्रक्रोः" - टीकाकारने मूलके गूढ आशयको प्रकट करनेके लिये शक्य करते हुए यह लिखा है कि " पुण्यार्य बनाया हुआ अन्न यदि साधु नहीं लेता तो फिर वह शिष्ट लोगोंके
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