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दानाधिकारः।
घरोंमें मिक्षा ले ही नहीं सकता क्योंकि शिष्ट लोगोंकी पुण्यार्थ ही पाक्रमें प्रवृत्ति होती है" इसका समाधान आगे दिया गया है लेकिन प्रकृतानुपयोगी होनेसे वह नहीं लिखा गया है। यहां टीकाकारने साधुसे इतरको दान देनेके लिये जिसके घरमें अन्न बनाया जाता है उसे शिष्ट कहा है एकान्त पापी नहीं कहा इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु से इतरको दान देना एकान्त पाप नहीं है उसमें पुण्य भी होता है। अतः साधुसे इतर हीन दीन हीन दुःखी जीवपर दया लाकर दान देनेमें एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका कायं समझना चाहिये।
(बोल ३१) (प्रेरक)
श्रावकोंकी सेवा भक्ति और दान सम्मान करनेका विधान यदि कहीं मूल पाठमें किया हो तो उसे बतलाइये। (प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक २.उद्देशा ५ के मूल पाठमें श्रावकोंकी सेवा भक्ति करनेका स्पष्ट विधान किया है । वह पाठ अर्थके साथ लिखा जाता है।
"तहारवेणं भन्ते ! समणं वा माहनं वा पज्जुवासमाणस्स किं फला पज्जुवासणा ? गाण फले सेणं भन्ते ! गाणे किं फले विण्णाण फले सेणं भन्ते ! विण्णाणे किंफले पञ्चक्खाणफले सेणं भन्ते ! पञ्चक्खाणे कि फले सनम फले सेणं भन्ते ! सञ्जमे किं फले अणह्णय फले एवं अणह्णए तवफले, तवेवोदारण फले, वोदारणे अकिरिया फल सेणं भन्ते ! अकिरिया कि फला सिद्धि पज्जवसाग फला पण्णत्ता गोयमा!"
(भग० श० २ उ०५) अर्थः
(प्रभ) हे भगवन् ! तथा रूपके श्रमण ( साधु ) और माहन (श्रावक ) की सेवा करनेका क्या फल है ?
(उत्तर ) हे गोतम ! तथारूपके श्रमण और माहनकी सेवा करनेका शास्त्र श्रवण फल है। और शास्त्रके श्रवण करनेका पदार्थ ज्ञान फल है इसी तरह पदार्थ ज्ञानका
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