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दानाधिकारः ।
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. “एक वर्ण मिदं सर्व पुर्वमासी युधिष्ठिर । क्रिया कम विभागेन चातुर्वण्र्य व्यवस्थितम् ।
"ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथाशिल्पेन शिल्पिकः ।
अन्यथा नाम मात्र स्यादिन्द्र गोपक कीटवत् ॥” अर्थात् “ हे युधिष्ठिर ! पहले सभी लोग एक वर्गके थे पीछेसे कर्मानुसार चार वर्गों की सृष्टि हुई।
जैसे शिल्प कर्म करनेवाला शिल्पी हुआ उसी तरह ब्रह्मचर्य धारण करनेवाला पुरुष ब्राह्मग हुआ। जो ब्रह्मचर्य धारण नहीं करता वह “ इन्द्र गोप" कीटकी तरह नाम मात्रका ब्राह्मम है " ऐसे नामधारी ब्राह्मगोंमें सत् शास्त्ररूपा विद्या नहीं होती। सभी शास्त्रों में अहिंसा और सत्य आदिका ही विधान पाया जाता है । कहा भी है:
" अहिंसा सत्य मस्तेय त्यागो मैथुन वजनम्
पञ्चतानि पवित्राणि सर्वेषां ब्रह्मचारिणाम्" _ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, और मैथुन वजन, ये पांच सभी ब्रह्मचारियोंके लिए पवित्र हैं। इनका सेवन करना ही विद्या पढ़नेका फल है जो शास्त्र पढ़ कर भी इनका सेवन नहीं करके क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, और मैथुनादि कार्यमें रत है वह वास्तवमें विद्या विहीन है। कहा भी है
“सद् ज्ञानमेव नभवति यस्मिन्नुदिते विभाति राग गणः ।
तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकर किरणाग्रतः स्थातुम् ॥
अर्थात् जिस ज्ञानके उदय होनेपर भी राग गण प्रकाश करते हैं वह ज्ञान ही नहीं है क्योंकि सूर्यकी किरणों के सामने ठहरनेके लिये अन्धकारकी शक्ति कहां है ? जिस वस्तुसे प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती निश्चय नयके अनुसार वह कोई वस्तु ही नहीं है अतः जो ब्राह्मग विद्या पढ़ कर भी चोरी जारी हिंसा आदि कुकर्म करते हैं वे न तो वास्तविक ब्राह्मग है और न उनकी विद्या ही वास्तविक विद्या है किन्तु जाति और विद्या दोनोंसे वे हीन हैं उन ब्राह्मगोंको पापकारी क्षेत्र समझना चाहिये । यह उक्त गाथा का टीकानुसार भावार्थ है।
इस गाथामें क्रोधी, मानी, मायी, लोभी, व्यभिचारी, हिंसक, और चोर ब्राह्मणों को पापकारी क्षेत्र कहा है जो उक्त दोष वर्जित ब्राह्मण हैं उनको नहीं अतः इस गाथा का नाम लेकर ब्राह्मग मात्रको पापकारी क्षेत्र बतलाना मूल् का कार्य है । यदि ब्राह्मण मात्रको पापकारी क्षेत्र बतलाना शास्त्रकारको इष्ट होता तो इस गाथामें शास्त्रकार ब्राह्मण
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