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सद्धर्ममण्डनम् ।
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ९३ के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दशकी गाथा लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं :
"अथ अठे दश शस्त्र कह्या तिगमें अव्रतने भाव शस्त्र कह्यो तो जो श्रावकने अव्रत सेवायां रूडा फल किम लागे। एतो अव्रत शस्त्र छै ते मांटे जेतला जेतला श्रावकरे त्याग छ ते तो व्रत , अने जेतलो आगार छै ते सर्व अव्रत छै । आगार अव्रतसेव्यां सेवायां शस्त्र तीखो कियो कहिए पिणधर्म किम कहिये"।
(भ्र० पृ० ९३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
गणाङ्ग सुत्रकी वह गाथा लिखकर इसका समाधान किया जाता है
"दस विहे सत्थे पन्नत्ते तं जहा-सत्थ मग्गी विसं लोणं सिण हो खार मंविलं । दुप्पउत्तो मनोवाया काओ भावो य अविरई।" अर्थः
दश प्रकारके शस्त्र होते हैं वे ये हैं-अग्नि, विष, नमक, तैल घृतादि चिकने पदाथ, खारी चीज, भश्म आदि, खटाई, अयन पूर्वक प्रयोग किये हुए मन, वचन, काया, और अप्रत्याख्यान, ये दश शस्त्र होते हैं। यह उक्त गाथाका अर्थ है।
इसमें पहले कहे हुए छः द्रव्य शस्त्र और पीछले ४ भाव शस्त्र हैं। ये भाव शस्त्र जिसमें मौजूद हैं वह यदि कुपात्र माना जाय और उसको दान देना यदि शस्त्रको तीखा करना तथा एकान्त पाप समझा जाय तो छठे गुण स्थानवाले प्रमादी साधुको भी कुपात्र मानना पड़ेगा और उसे दान देना प्रमाद रूप शस्त्रको तीखा करना और एकान्त पाप कहना होगा क्योंकि प्रमादी साधुमें प्रमादवश मन, वचन और कायका दुष्प्रयोग रूप भाव शस्त्र विद्यमान है। यदि कहो कि प्रमादी साधुको प्रमादवृद्धिके लिये दान नहीं दिया जाता किन्तु उसके ज्ञान दर्शन और चारित्रकी उन्नतिके लिये दिया जाता है इसलिये प्रमादी साधुको दान देनेसे एकान्त पाप नहीं होता तो उसी तरह सरल वुद्धिसे यह भी समझो कि श्रावकको दोष वृद्धि के लिए दान नहीं दिया जाता उसके गुणका पोषण करनेके लिये दिया जाता है अतः श्रावकको धर्मबृद्ध्यर्थ दान देना एकान्त पाप अथवा शस्त्रको तीखा करना नहीं है। श्रावकको अबतकी क्रिया भी नहीं लगती है इसलिये उसको दान देना अबतका सेवन कराना भी नहीं है यह बात विस्तारके साथ पहले कही जा चुकी है। बास्तवमें जैसे प्रमादी साधुको उसके मन वचन कायाके
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