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सद्धर्ममण्डनम् । ___"अर्थात् सुख साधक वस्तुका नाम “हित" है। सुख पहुंचाना "सुख" है और दुःखसे त्राण ( रक्षा) करना पथ्य कहलाता है। सनत्कुमार देवेन्द्र साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओं पर अनुकम्पा रखते हैं इस लिये वह उनके हित, सुख, और पथ्यको कामना करते हैं। यह उक्त टीकाका अर्थ है।
यदि कोई कहे कि उक्त मूल पाठमें श्रावक और श्राविकाओंके शारीरिक हित सुख और पथ्यकी कामना नहीं कही गई है किन्तु मोक्ष सम्बन्धी हित, सुख और पथ्य की कामना कही गई है इस लिये श्रावकको शारीरिक सुख देना कोई धर्म नहीं है तो उससे कहना चाहिये कि श्रावक और श्राविकाओंके समान ही यह पाठ साधु और साध्वियोंके लिये भी आया है इस लिये यदि श्रावक और श्राविकाओंके शारीरिक हित सुख और पथ्य करनेसे धर्म पुण्य नहीं है तो साधु और साध्वियोंके भी शारीरिक हित सुख और पथ्यसे धर्म पुण्य नहीं होना चाहिये । यदि साधु और साध्वीके शारीरिक हित सुख और पथ्यसे धर्म होना मानते हो तो फिर श्रावक और श्राविकाओंके शारीरिक हित सुख और पथ्यसे भी धर्म मानना ही होगा।
उवाई सूत्रके मूल पाठमें श्रावकको धार्मिक, सुशील, सुव्रत, धर्मानुग और धर्म पूर्वक जीविका करने वाला कहा है । वह पाठ यह है :
"अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्प परिग्गहा धम्मिया धम्माणुया घम्मिट्ठा धम्मक्खाइ धम्मप्पलोइया धम्मप्पलबणा धम्मसमुदायारा धम्मेणंचेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति सुसोला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साइ"
(उवाई सूत्र ) इस पाठमें कहा है कि-श्रावक अल्पारंभी, अल्पपरिग्रही, धार्मिक, धर्मानुग, धर्मिष्ठ, धर्माख्यायी, धर्म प्रलोकी, धर्म प्ररंजन, धर्मसमुदाचार, सुशील, सुव्रत, सुप्रत्यानंद साधु तुल्य और धर्म पूर्वक जीविका करने वाले होते हैं। शास्त्र ऐसे ऐसे विशेषग लगा कर जिसकी प्रशंसा करता है उसी श्रावकको कुपात्र बताना और उसको दान देकर धर्म की सहायता पहुंचानेसे एकान्त पाप कहना कितना तीव्रतर मिथ्यात्वका काय्य है यह हर एक बुद्धिमान मनुष्य समझ सकता है ।
सुय गडांग सूत्रके मूल पाठमें श्रावकको धमपक्षमें माना है वह पाठ अर्थके साथ दिया जाता है
"तत्थणं जासा सवओ विरया विरह एस ठाणे आरंभ णो आरंभ ठाणे । एस ठाणे आरिए केवले पडिपुन्ने णेयाउए संसुद्ध
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