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सद्धर्ममण्डनम् ।
लगनेकी प्ररूपणा इस पाठसे विरुद्ध समझनी चाहिये। फिर भी कोई कहे कि १७ पापों का जो अंश श्रावकको बाकी है उसके हिसाबसे श्रावकको अबतकी क्रिया भी होनी चाहिये" तो श्रावकमें मिथ्यात्वका जो अंश बाकी है उसके हिसाबसे मिथ्यात्वको क्रिया भी उसे होनी चाहिये । यदि कहो कि मिथ्यात्वकी क्रिया श्रावकको वजित की गई है तो भगवतीके उक्त पाठमें अबतकी क्रिया भी श्रावकको स्पष्ट रूपसे वर्जित की गई है अतः श्रावकको अप्रतकी क्रिया मानना एकान्त मिथ्या है। श्रावकको अबतकी क्रिया सिद्ध करनेके लिये उवाइ सूत्र और सुय गडांग सूत्रका जो मूलपाठ जीतमलजीने लिखा है वह निम्न लिखित है :
_ "एगचाओ पाणाइनओ पडिविरया जाव जीवाए एगचाओ अपडि विरया एवं जाव परिग्गहाओ पडिविरया एगचाओ अपडि. विग्या। एगचाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुणोओपरपरिवायाओ अरति रतिओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जाव जीवा ए एगचाओ अपडिविरया जाव जीवाए।"
( उवाई प्रश्न १२) अर्थ
श्रावक यावजीवन, प्राणातिपातसे लेकर परिग्रह पर्यन्त एक एकसे निवृत्त और एक एकसे निवृत्त नहीं है इसी तरह क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दोष, कलह, आख्यान, पैशुन्य, परपरीवाद, अरति रति, माया मृषा, और मिथ्यादर्शन शल्यके एक एक अंशसे हटे हुए और एक एक अंशसे महीं हटे हैं।
इस पाठमें जैसे १७ पापोंसे श्रावकको अंशतः नहीं निवृत्त होना कहा है उसी तरह अठारहवां पाप मिथ्यादर्शन शल्यसे भो अंशत: नहीं हटना कहा है इस लिये जैसे मिथ्यादर्शन शल्यसे अंशतः नहीं हटने पर भी श्रावकको मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती उसी तरह १७ पापोंसे अंशतः नहीं हटने पर भी श्रावकको अव्रतकी क्रिया नहीं लगती अत: उक्त मूलपाठकी साक्षी देकर श्रावकको अत्रतकी क्रिया लगना ठहरा कर उसको अन्न पानादिके द्वारा सहायता करनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये।
(बोल २५ वां समाप्त)
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