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दानाधिकारः।
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सलगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निव्वाणमग्गे निजाणमग्गे सव्व दुःखप्पहीणमग्गे एगंत सम्मे साहू". अर्थ:___ पहले बताये हुए स्थानों में जो विरता विरत नामक स्थान है वह आरम्भ नो आरंभ कहलाता है। यह स्थान, आर्य, केवल, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्ध, इन्द्रियसंयम, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग सर्वविध दुःखोंका विनाशकमार्ग, एकान्त सम्यग्भूत, और साधुभूत समझना चाहिये।
यहां विरता-विरत नामक स्थानको साधूभूत सम्यग्भूत इत्यादि कहकर धर्मपक्षमें स्थापन किया है फिर भी श्रावकको कुपात्र कायम करना और उसको अन्नादि दानसे एकान्त पाप कहना अज्ञानी और कुपात्रोंका कार्य समझना चाहिये यद्यपि कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य आदिक व्यापार करते समय श्रावकोंसे आरम्भजा हिंसा भी होती है तथापि श्रावकोंमें धर्मके बाहुल्य होनेसे वे धर्मपक्षमें ही गिने गये हैं टीकाकारने भी यही कहा है। वह टीका यह है:
"एतञ्च यद्यपि मिश्रत्वाद् धर्मा धर्मा भ्या मुपेतं तथापि धर्म भूयिष्ठत्वाद् धार्मिकपक्ष एवावतरति तद्यथा बहुषु गुणेषु मध्यपतितो दोषोनात्मानं लभते कलंक इव चन्द्रिकायाः तथा बहूदकमध्यपतितो मृच्छकलाक्यवोनोदकं कलुषयितुमलम् । एवम धर्मोऽपि धर्म मिति स्थितं धार्मिक पक्ष एवायम्" ।
अर्थात् यह विरता-विरत नामक स्थान, मिश्र होनेसे यद्यपि धर्म और अधर्म दोनों हीसे युक्त है तथापि धर्मके बाहुल्य होनेसे यह धर्म पक्षमें ही ठहरता है। क्योंकि बहुत गुणोंके मध्यमें पड़ा हुआ स्वल्प दोष अपना प्रभाव नहीं दीखलाता। किन्तु चन्द्रमाकी किरणोंमें कलंककी तरह छिप जाता है। जैसे बहुत जलमें पड़ा हुआ मिट्टीका कण मिट्टीको गन्दा करनेके लिये समर्थ नहीं होता उसी तरह बहुत धर्मके मध्यमें पड़ा हुआ थोडासा अधर्म, धर्मकी कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकता।
यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय दर्शाते हुए श्रावकको धर्मपक्षमें ही मान कर उसके स्वल्प पापको अकिंचित्कर और अगणनीय बतलाया है अतः उक्त मूलपाठ
और उसकी टीकासे श्रावक सुपात्र और धार्मिक सिद्ध होता है इसलिये श्रावककी सेवा शुश्रूषा करने, और दान सम्मानादिके द्वारा धर्ममें सहायता देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये ।
(बोल २६ वां समाप्त)
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