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सद्धर्ममण्डनम्।
कहा है कि "विरति और प्रत्याख्यानसे जो काय कष्ट होता है उससे देवता होता है" वलिक पन्नावणा सूत्र की टीकामें विरत पुरुषके संज्वलनात्मक कषाय और योगसे देवता होना बतलाया है अतः विरति और प्रत्याख्यानसे जो काय कष्ट होता है उससे कर्मोकी निर्जरा होती है पुण्य बन्ध नहीं होता।
यदि विरति और प्रत्याख्यानसे होनेवाले काय कष्टसे पुण्य बन्ध होने लगे तो फिर कर्मोकी निजरा किससे होगी ? अतः विरति और प्रत्याख्यानसे होनेवाले काय कष्टके द्वारा पुण्य बन्ध मानकर उससे देवता होनेकी कल्पना करना मिथ्या है।
___ अब पश्न यह होता है कि देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे देवता यदि नहीं होता तो श्रावक किस कर्मके प्रभाव से देवता होता है ? तो इसका उत्तर यह है:
श्रावकोंमें जो अल्पारम्भ, अल्प परिग्रह, और अल्प क्रोध, मान, माया, आदि आस्रव होते हैं उन्होंसे वे देवना होते हैं देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे नहीं क्योंकि बन्ध, आस्रवसे, होता है संवा और निर्जरासे नहीं। देश विरति और देश प्रत्याख्यान संवर हैं आस्रव नहीं हैं आः उनसे बन्ध नहीं हो सकता इस लिये देश विरति और देश प्र-याख्यानसे देवता हाने की बात मिथ्या है।
व्रत प्रत्याख्यानले और उनमें होनेवाले काय कष्टसे देवता नहीं होता इस विषयमें भगवतोसूत्र शतक २ उदशा ५ का मूल पाठ भी प्रमाण है । वह पाठ यह है:--
___ "संजमेणं भन्ते ! किंफलइ ? तवेणं भन्ते ! किं फलइ ? संजनेणं अज्जो ! अणण्हय फले तवेणं वोदारण फले"
__ (मगवती शतक २ उ० ५) अर्थ:
तुङ्गिया नगरीके श्रावकोंने भगवान् पार्श्वनाथजीके स्थविरोंसे पूछा कि हे भगवन् ! संयम और तपस्याका क्या फल है ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए पार्श्वनाथ भगवान्के स्थविरोंने कहा कि संयमका फल, नवीन कर्मों का आगमन रूकना है और तपस्याका फल, पूर्वकृत कर्मों का नाश है।
इस पाठमें श्रीपार्श्वनाथ भगवान के स्थविरोंने व्रत और प्रत्याख्यानसे संवर और निर्जराकी उत्पत्ति बतलाई है पुण्य बन्ध होना नहीं कहा है अतः व्रत प्रत्याख्यानसे पुण्य बन्ध मानना शास्त्र विरुद्ध है। इसके अनन्तर उक्त श्रावकोंने पाश्वनाथ भगवानके स्थविरोंसे पूछा कि हे भगवन् ! संयम और तपस्यासे जबकि संवर और निर्जरा होती है तो संयमी ओर तपस्वी पुरुष देवता कैसे होते हैं ? इस प्रश्नके चार उत्तर चार स्थविरोंने पृथक पृथक दिये थे । एकने कहा कि सगग अवस्थाकी तपस्यासे प्रतधारी
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