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दीनाधिकारः ।
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और तपस्वी पुरुष स्वर्ग जाते हैं। दूसरेने कहा कि सराग अवस्थाके संयमसे जीव स्वर्ग जाते हैं। तीसरे ने कहा कि क्षय होनेसे बचे हुए कर्मोके द्वारा स्वर्ग जाते हैं। चौथेने कहा कि सांसारिक पदार्थों में व्यासक्त होनेसे देवता होते हैं। इन उत्तरोंमेंसे पहिलेके दो उत्तरों का अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने यह लिखा है :
" ततश्च सराग कृतेन संयमेन तपसाच देवत्वावाप्तिः रागांशस्य कर्म बन्ध हेतुत्वात् " अर्थात् सरागसंयम और सराग तपस्यामें जो गगांश विद्यमान है वही कम धातु है उसी सराग संयमी और सराग तपस्वी देवता होते हैं ( संयम और तपस्या से नहीं ) तीसरे उत्तरमें क्षय होने से बचे हुए कर्मों के कारण बन्ध होना कहा है तपस्या और संयमसे नहीं। चौथेमें, तपस्वी और संयमी पुरुषों का अपने भाण्डोकरणोंमें जो ममत्व भाव है उससे देव भवपाना बतलाया है तपस्या और संयमसे नहीं । इस प्रकार इन चारों उत्तरोंमेंसे किसीमें भी व्रत प्रत्याख्यानसे तथा व्रत प्रत्याख्यान पालते समय जो काय कष्ट होता है उससे देवता होना नहीं कहा है अतः व्रत प्रत्याख्यान से तथा उनका पालन करनेमें होने वाले काय कष्टसे देवता होनेकी प्ररूपणा एकान्त मिथ्या है। जबकि अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहादिसे श्रावक, देवता होते हैं तब उनका शुभ आशय से भोजन करना एकान्त पापमें कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानों को स्वयं सोच लेना चाहिये ।
( बोल २८ वां )
( प्रेरक )
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भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १-२ पर लिखते हैं अथ ईहां पिr air गृहस्थादिक नो देवो संसार भ्रमण हेतु जागीने साधु त्याग्यो इमि को तो गृहस्थ में तो श्रावक पिण आयो तो ते श्रावकने दानरी साधु अनुमोदना क्रिम करे तिणमें धर्म पुण्य किम कहिए "
इसका क्या समाधान ?
( ० पृ० १०२ )
( प्ररूपक )
सुयगडांग सूत्र की गाथा लिख कर इसका समाधान दिया जाता है । वह गाथा यह है :
" जेणेह णिव्यहे भिक्खू भत्तपाणं तहा विह अणुध्वपाण मन्नेसिं तंविज्जं परिजाणिया "
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