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दानाधिकारः ।
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सव्वजणाए निसि तं भुजह वाणं जाव परिभाएहवाणं सेणं मेगं वयन्तं परो वएज्जा आउसन्तो समणा ! तुमं चेवणं परिभाएहि सेतत्थ परिभाएमाणे नो अप्पणो खद्ध खद्' डायं डायं ऊसढं कसढं रसियं रसियं मणुन्नं मन्नं निद्ध' निद्ध लुक्खं लुक्खं से तत्थ अमुच्छिए अगिद्ध अगदिए अणज्झोववन्ने बहु सममेव परिभा इज्जा | सेणं परिभाएमाणं परोवएज्जा आउसन्तो समणा ! माणं तुमं परिभाएहि सव्वे वेगइया ठिआउ भुक्खामो से तत्थ भुजमाणे अपणा खद्ध खद्ध जाव लुक्खं से तत्थ अमुच्छिए ४ बहु सममेव भुजिज्जा पाइज्जा वा"
अथः
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( आचारांग सूत्र )
किसी ग्राम या नगरमें भिक्षाके लिये गये हुए साधु को यह मालूम हो जाय कि "इस गृहमें कोई दूसरा भिक्षुक भिक्षाके निमित्त गया हुआ है” तो साधु दाता और याचकके असन्तोष तथा अन्तरायके भय से उनके सम्मुख न खड़ा रहे तथा उस गृहके द्वार पर भी न ठहरे वहांसे इट कर किसी एकान्त स्थानमें चला जाय और जहां मनुष्योंका गमनागमन न होता हो तथा दाता और याचककी दृष्टि न पड़ती हो वहां जाकर ठहरे। ऐसे स्थानमें ठहरे हुए साधुके पास आकर वह गृहस्थ यदि चतुर्विध आहार देकर कहे कि 'हे आयुष्मन् श्रमण ! आज आप बहुतसे भिक्षुक भिक्षार्थ मेरे घर पर आ गये हैं परन्तु मैं किसी कार्य विशेषमें फंसा हुआ हूं अतः अलग अलग बांट कर आप लोगोंको भिक्षा देनेमें असमर्थ हूं यह चतुर्विध आहार आप सबको इकठ्ठा ही देता हूं आप लोग अपनी इच्छानुसार इसे एक साथ ही खा लेवें या बांट बांट कर खांय" तो साधु उत्सर्ग मार्ग में उस आहारको न लेवे परन्तु दुर्भिक्ष आदिके समय या मार्गकी थकावटकी हालत में साधु समिक्षाको ले सकता है उसे लेकर साधु यदि यह सोचे कि "यह भिक्षा गृहस्थने मुझको
दी है और यह है भी थोड़ी इस लिये इसे मैं अकेला ही खा जाऊ" तो वह कपटी है ऐसा का साधुको कदापि न करना चाहिये अतः उस भिक्षाको लेकर साधु दूसरे भिक्षुकोंके पास जावे और उन्हें दिखा कर कहे कि हे श्रमणो ! यह आहार आप सभी लोगोंके लिये गृहस्थाने इकठ्ठा ही दिया है इस लिये आप इसे इकठ्ठा ही खा लेवें या बांट बांट कर खांय । यह सुन कर यदि कोई भिक्षुक यह कहे कि हे आयुष्पन श्रमण ! आप ही इसे बांटकर हम सबको दे देवें तो उत्सर्ग मार्ग में साधु इस बात को स्वीकार न करे। यदि अपवाद मार्गमें साधुको बांधना पड़े तो वह लोभमें आकर सुन्दर, सुगन्ध, चिकने रूखे और मनोज्ञ आहार अपने हिस्से में अधिक न लेवे किन्तु सभी चीजोंका २३
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